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________________ २२ संभचेर, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ २३ ॥ ठिईण सेठा लवसत्तमा वा, सभा मुहम्मा व समाण सेठा । निव्वाण सेठ्ठा जह सव्वधम्मा, ण णायपुत्ता परमत्यि णाणी ॥ २४॥ पुढोदमे धुणइ विगयगेही, न सण्णिहिं कुन्वा मासुपन्ने । तरिऊ समुदं व महाभवोध, अभयंकरे वीर अणंतचक्खु ॥२५॥ कोह च माण च तहेव माय, लोह चउत्थं अज्झत्यदोसा, एमाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वद पाव ण कारवेद ॥ २६ ॥ किरियाकिरियं वेणझ्याणुवाय, अण्णाणियाग पडियच्च ठाण । से सव्व वायं इति वेयहत्ता, उवहिए सजमदीहराय ॥२७॥ से वारिया इत्थिसराइमच, उवहाणवं दुक्खक्खयठ्याए । लोग विदित्ता मारं पर च, सव्व पभू वारिय सव्ववार ॥२८॥ सोचा य धम्म अरहतमासियं, समाहित भट्ठपदोवसुद्धं । त सइहाणा य जणा अणाऊ, इदा व देवाहिवा आगमिस्संति ॥ २९ ॥ ति वेमि ।। सिरि वीरथुई समत्ता अपने जैन मुनिओंसे प्रार्थना सैकेडों वाँसे अपने अपने असर्वच गुरुओं और बड़े बूढोंके नामसे पुजवी मानेवाली प्रचलित ३२ सम्प्रदायोंसे जैनसमाजको अव तक कुछ भी काम न होकर प्रत्युत अधिकाधिक हानि ही उठानी पड़ी है। पूर्वकालमें भी जव इन गच्छ और पार्टिबाजियोंसे कुछ लाम और उन्नति नहीं हुई तब इस अनावश्यक और वृथाकी वाडावंदी एव सम्प्रदायवादके नामकी पिकापेलकी इस क्रान्तिकारी वैज्ञानिक-नवयुगमें जरासी मी आवश्यकता नहीं है । आजका नवयुग मनुष्य समाजमें साम्यवाद एवं आपसी प्रेमको बढ़ाना अपना मुख्य कर्तव्य समझता है किन्तु इस वे ढगे कुतर्क सिद्ध वैषम्य वादको बिल्कुल नहीं चाहता। इसलिये इन प्रचलित सव सम्प्रदायोंको जड-मूलसे मिटाकर एक मात्र "ज्ञातपुत्र महावीर भगवान् के किसी भी एक नामसे अपनी सम्प्रदायका परिचय देना चाहिये। जिससे जैनसमाजकी मुद्दतसे बिखरी हुई शानशक्ति-सम्पशक्ति और प्रेमशक्तिका फिरसे पुष्ट संग्रह हो सके। अतनिवेदन है कि अपने वडे बूढों के नामका झूठा मोह नाम मात्रको भी न रखकर महावीर भगवानका नाम और उनका स्याद्वादसिद्धान्त ही यत्र तत्र सर्वत्र प्रकाशित करना चाहिये क्योंकि प्रत्येक जैनको भगवान् महावीरकी देन है और वह सम्प्रदायवाद-पक्षवाद-जडवाद गच्छवाद-टोलावाद जातिवाद अधिकारवाद-सचावादको जडसे मिटाकर एकता एव सङ्घठन-शक्तिसे जाति-समाज और देशका दासत्व दूर करके प्राणीमात्रमें प्रेमभाव रखनेसे ही पूरी की जासकती है। प्रार्थी-- ज्ञातपुत्र-महावीर जैन संघीय 'पुप्फभिख्खु
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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