SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२' - वीरस्तुतिः। - प्रभुमें इनका अत्यन्ताभाव है । अत: प्रभुके अनुवर्तिओंका भी यह मुख्य कर्तव्य है कि वे भी कषायोंको छोडें; जैसे दशवकालिकमें कहा है कि क्रोध-मान-माया लोभ पापको बढाने मे उत्तेजना देते हैं, यदि हितकी इच्छा है तो चारों ही कषायोंका वमन करो अर्थात् त्याग करो।" 'ये चारों कषाय अनन्त दोषोंकों वढाने वाले हैं, तथापि इनमें एक एक मुख्य दोष है।' जैसे-“क्रोधसे प्रीतिका नाश होता है, मान विनयका नाश करता है, माया-कपट करनेसे मित्रता टूट जाती है, लोभ तो प्रेम, विनय और मित्रता इन तीनों का ही नाशक है। इनके हटाने के साधन-क्रोधको शान्तिसे, मानको मार्दवतासे, मायाको सरल और उदार आर्जवतासे तथा लोभको सन्तोषसे अलग हटादो नहीं तो संसारमे अनन्त परिभ्रमण करना होगा । क्योंकि-यदि क्रोध और मानका निग्रह न किया हो, तथा माया और लोभको वढा रहा हो तब तो ये चारों ही कषाय संसारकी जडको सींचकर बढा देते हैं। । कषायके त्याग का फल-उत्तराध्ययन के २९ वें अध्यायमें गौतम. प्रश्न पूछते हैं कि-भगवन् ! कषाय को छोड देनेसे क्या लाभ उत्पन्न होता है ? गौतम ! कषाय त्यागसे वीतरागभाव उत्पन्न होताहै । वीतरागभाव आने पर सुखदु खमें समान भाव हो जाताहै। वीतरागता का फल-- - वीतरागता के पानेसे क्या लाभ होता है ? गौतम ! वीतरागतासे स्नेह वंधन और तृष्णाका वन्धन नष्ट करडालता है, मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द-रूपरस-गंध और स्पर्शसे वैराग्यद्वारा विरक्त होता है। __ अलग २ कपायके जीतने का फल-क्रोध के विजयसे क्या प्राप्त होता है ? क्रोधके विजयसे क्षमा के गुणको प्रगट करताहै। क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले कमाको न बांधकर पूर्वकालमें वाधे हुए कम्माका क्षय करदेता है। शान्तिसे परिषह जीतनेका अभ्यास तथा सहिष्णुता उत्पन्न करता है। -
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy