SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १९१ उपयोग होता है । मान दूसरा कषाय है, इसकी मात्रा का कोई प्रमाण नहीं है, इसे अहकार मी कहते हैं, इसके कारण 'वाहरे में यही कहता रहता है, इसके आवेशमें मात्र अपनीही बढती चाहता है । माया नाम कपट करने का है, इससे दंभ क्रिया करता है, सरलता का नाश कर डालता है, अपनी चिद्वृत्ति का मालिक नहीं रह पाता । पराये धनमें अतिशय अभिलाषा रखना लोभ है, जिससे किसी दूमरेका अहित करना बायें हाथका खेल समझता है। . __ . क्रोध शान्तिसे जीता जा सकता है, शान्तिके विना क्रोधके आवेशमें अन्धा हो जाता है। इससे अधीरता, अस्थिरता और हृदयशून्यता आ जाती है। अत. क्रोधको समभावसे नष्ट करना चाहिए। मुझसे बढकर अन्य कोई नहीं, इस मान्यताके आने पर मानसे घिर जाता है, और अपनेमें अविद्यमानगुणको उत्पन्न करनेकी बुद्धि पैदा करता है, इससे अन्य सबको छोटी दृष्टिसे देखता है। स्पष्ट वात न कहना माया है। अधिक धनकी आय होने पर मी प्रतिपल जिसकी अभिलाषा बढती रहे उस अवस्थाका नाम लोभ है, या पराएं धनको देख कर उसके स्वीकार करने की इच्छाको हृदयमें उत्पन्न करना लोभ है, यह लोभ मनुष्योंके शरीरमें सबसे बडा शत्रु है, यह सब दु खोंकी खान और प्राणनाशक है, सब पापोंका मूल है, तीनों वर्गों के लोक इसके कारण विरोध खडा कर रहे हैं, सबके दुःखोंका कारण यही सिद्ध हुआ है। लोभसे प्रेरित होकर माता, पिता, भाई, बंधु और धर्म की मर्यादा 'तकको नष्ट कर डालता है। गुरु, मित्र, पिता, पुत्र, भगिनी आदिको लोभसे मार कर नाश करता है, तथा वह कौनसा अपकृत्य है जिसे लोभ वश न करसकता हो । परन्तु भगवान्ने इन चारोंका वर्मन कर दिया, इनको त्याग दिया, ये चारों दोष कोई साधारण दोष नहीं हैं, बल्कि ये अध्यात्म दोष है, इनसे अध्यात्मिकता मष्ट होती है । इनसे अनन्त ससारमें रुलना पडता है। भगवान महावीर इन कपायों को नष्ट करके महर्षि बने थे। तव फिर उनमेंसे खयं पाप या आस्रव करने का विभाव भी जाता रहा। अव ये किसी अपराधको नहीं करते, कर्म फीचसे सर्वथा अलिप्त हैं । जन्म-जरामरणरूपी ससारके युद्धसे मुक्त हैं । कलइका इनके आत्मामें अत्यन्ताभाव है। ये प्रभु निर्वैर है, आशय यह है कि प्रभु सयं पाप नहीं करते, न किसी अन्यको पाप या आस्रवका उपदेश ही करते हैं, न कराते हैं। क्योंकि पाप करना, कराना कपाय और. अशुभयोगसे होता है,
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy