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________________ १९ क्षेत्रमें सिद्धक्षेत्रका प्राधान्य है । धर्म - चरित्र के आश्रयसे विदेहक्षेत्र प्रधान है और उपभोगकी अपेक्षा देवकुरु आदि क्षेत्रका प्राधान्य है । काल प्राधान्य- एकान्त सुषम आदि आरक अथवा धर्मचरणके खीकार करने योग्य काल विशेष । भाव प्राधान्य क्षायिकभावमें है । 1 अब 'वीर' शब्दके द्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव ये चार भेद निक्षेप ज्ञ शरीर भव्य शरीरको छोड़कर ज्ञ भव्य व्यतिरिक्त में द्रव्यसे वीर द्रव्य के लिये सङ्ग्रामादिमें अद्भुतकाम करनेसे शूर पुरुष अथवा जो कुछ वीर्यवत् हो । क्षेत्र वीर - क्षेत्रमें अद्भुत उसके वीरत्वकी गाथायें गाई भी जानना चाहिये । भाव और लोभ परिषह आदिसे विजित न हो । यथा काम करनेवाला वीर होता है । अथवा जहां जाती हों वह । इसी प्रकार कालके आश्रयसे वीर वह है जिसका आत्मा क्रोध - मान-माया पंचेंद्रियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिये जियं ॥ भावार्थ- पांच इन्द्रियें - क्रोध-मान- माया और लोभको आत्माके लिये जीतना दुष्कर है । यदि एक आत्मा जीत लिया तो सब कुछ जीतलिया समझना चाहिये । जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे एगं जिणेज अप्पाणं, एस से भावार्थ- जो योद्धा लाखों सुभट युक्त दुर्जय सग्रामको जीत लेता है उसकी अपेक्षा आत्माको जीतनेवाला परम जय पानेवाला योद्धा है । दुजए जिणे । परमो जभो ॥ इसीप्रकार श्रीमन्महावीर प्रभु अनुकूल प्रतिकूल विचलित न हुये । इस अद्भुतकार्यको करसकनेके भावसे महावीर कहलाये । या द्रव्यवीर व्यतिरिक्त भववाला । परिषह और उपसर्गों से कारण वे गुणनिष्पन्न क्षेत्रवीरकी अपेक्षा वह जहा होता है अथवा जहां उसके गुणोंका कीर्तन होता है । कालसे भी यही जानना चाहिये । भाववीर नो आगमसे वीरनामगोत्रकर्मका अनुभव कर्ता ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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