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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १६३ "जे इन्द्रियोने तो वशमा राखे छे; देव-गुरुनी सेवा पण करे छ, यथा शक्ति दान पण आपे छे, तत्व भणे भणावे छ, तप पण करे छ, पर्ण धर्म चुद्धिए जरा पण हिंसा करी बेसे छे त्यारे तो तेनी उपरोक सर्व क्रियाओ निष्फल छे, तेथी साबित थयुं के धर्मना नामे करवामा आवेली हिंसा वज्रलेप समान भयंकर पापकारिणी छे।" "भने जे शास्त्रमा धर्मना नामे हिंसानो उपदेश करवामा आव्यो होय ते शास्त्र नथी पण शस्त्र समान छ ।” “ए केQ आश्चर्य छे जे मनुष्य सुद्धाने मारवानो उपदेश देवावाळा, लोभान्ध वनी पथ भ्रष्ट वनवावाळा, हिंसा विधायकशास्त्र वनावीने तथा पाप करवानो उपदेश आपीने लोकोने मूर्ख बनावी रह्या छ, अन्धश्रद्धालु बनावीने मानो नरकना कुंडमां नाखी रया छे !" अहिंसानु माहात्स्य-"अहिंसा मातानी जेम सर्वनुं पालन करनारी अने हितकारिणी छे । अहिंसाज शत्रुभोना मनमां अमृतनो संचार करावनारी छ । अहिंसा दु ख रूपी दावानलने बुझाववामा अमोल अने प्रधान वर्षा छ । संसार भ्रमण अर्थात् जन्म मरणना रोगथी पीडित जीवोने आरोग्यता अर्पनारी समर्थ औषधि छ ।" अहिंसा फल-दीर्घायुष्य-पवित्र अने सुन्दर रूप-नीरोगता-संसा. रमा निर्मल यश. कीर्ति इत्यादि सामग्रीओ अहिंसा पालनथी ज मळे छ, अधिक शुं कहेवू, अहिंसा सर्व मनोरथ पूर्ण करवावाळी आदि शक्ति छ ।" कोईए ठीकज कह्यु छ के-“पर्वतोमा सुमेरु अमृत पीनारामां देवता, मनुष्योंमा चक्रवर्ती, ज्योतिष चक्रमा चन्द्र, वृक्षोमा ठंडी छाया आपनार फळदार अशोकवृक्ष, ग्रहोमा सूर्य, जळाशयोमा समुद्र, सुर असुर मनुष्य तथा चक्रवर्तिओमा वीतरागनी समान सर्व व्रतोमां पण अहिंसा व्रत सर्वोत्तम छ । ते व्रत अनुपम छ ।” निष्कर्ष-आ सर्व शास्रोनो विचार करतां ए खयमेव सिद्ध थाय छे के हिंसा सर्व शास्त्रोमा वर्ण्य वतावी छे। जैनोए तो तेनुं नाम 'प्राणातिपात' का छ । तेनो भाशय ए छे के कोईना एक प्राणने पण निरर्थक दु.ख न देवु जोइए। साधु मुनिराज तो तेनुं सर्वाशे पालन करे छ। भने गृहस्थ तेनुं अमुक अंशे पालन करी शके, छे । । ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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