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________________ १६० . . - वीरस्तुतिः। ", - तदुपरान्त 'योगशास्त्र' ना व्यासकृत भाष्यमां अहिंसानी व्याख्या : प्रमाणे करवामा आवी छ । के "सर्वदा सर्वप्रकारना जीवोनी साथे कदी पण द्रोह न करवो ते अहिंसा छ । ___याज्ञवल्क्य -स्मृतिमा का छे के मन, वचन, कायथी कोईने पण क्लेश न पहोंचाडवो ते ज 'अहिंसा' छ । ___ अहिंसा-सत्य-आज्ञा विना पर वस्तु न लेवी, आत्माने पवित्र राखवो; इन्द्रियोनुं दमन करवु, दया पाळवी, मनोविकारना प्रवाहने रोकवो, शान्तिमय जीवन जीवचुं, ए वधाने धर्मसाधन वताववामां आव्युं छे। . . - यजुर्वेद-तेमां पण उपदेश आपवामां आव्यो छे. के-हे पुरुष! तुं जगत्ना कोई पण प्राणीनी हिंसा करीश नहि । "मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे” १८-३, पोतानी आखोथी सर्वने मित्र दृष्टिए जोवा जोइए। शत्रु जेवी दृष्टि कोईना पर पण न करवी । मनुनो पांचमो अध्याय-"जे मनुष्य पोताना कल्याणनी तो इच्छा प्रगटकरे छे, परन्तु प्राण-भूत जीवोनी हिंसा करे छे. ते जीव आ लोकमां, अने मरीने परलोकमा क्यारे पण सुख मेळवी शको नहि। , दशधर्म-"धैर्य धारण करवू, शान्ति राखवी, आत्माने पापथी विरक्त वनाववो, चोरी न करवी, आन्तरिक पवित्रता रासवी, इन्द्रियोने वश करवी, सत्य बोलवु, क्रोध न करवो, अहिंसाचं पालन करवू, आरभ अने परिग्रहने मुकवा ए प्रकारे धर्मना दश लक्षण वतावेला छे ।" महाभारत-"आ हुं सत्य कहुं छु के सत्यवादिओनो धर्म अहिंसा छे. अने ते प्रधान छे, अने हिंसा करवी, ए अधर्म छे, पाप छ। .. अहिंसावचनामृत-अहिंसा परम धर्म छे, अहिंसा उत्कृष्ट दमन छ, अहिंसा उत्कृष्ट दान छ, अहिंसा प्रधान तप छे, अहिंसा परम यज्ञ छ, अहिंमा परम ,फळ छे, अहिंसा परम मित्र छे, अहिंसा उत्कृष्ट सुख छे अहिंसा एज उत्तम जीवन छ । . . - "सर्व प्रकारना यज्ञोमा अनेक प्रकारचें दान कर, सर्व तीर्थमा अनेक स्तुतिओ गांवी, सर्व दानोनुं फल अहिंसा करतां सारुंनथी, एटलेके ते कर्म अहिंसानी,साथे वरावरी करी शकतुं नथी।" . . . . .
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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