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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १५९ करु । भलाई करूं, परोपकारमा हुं पोते लाग्यो वळग्यो रहुं ने बीजाओने लगाडवानो प्रयत्न करूं । मारामां लेशमात्र पण दोष न रहेवा दऊं ने बीजाओने निर्दोष बनाववानो पण सतत प्रयत्न करूं । आत्माना अनन्त सुखथी सुखी बनी बीजाओने सुखना स्थान पर लई जाऊं। जो कोई प्राणी आ भावोथी विपरीत चालीने, लोभना दास वनीने, जीभनी लालच जाळमा फसीने, द्रव्योपार्जननी इच्छाथी, लडाईमा विजय मेळववानी इच्छा थी, पोताना मनने व्हेकाववाना हेतुए, निरपराध दीन-प्राणिओनी "हिंसा' करे छ त्यारे तेनाथी उपार्जन करेला पापथी दूषित थईने, ते खार्थीने नरकमा अवश्य जवू पडे छ, आ सिद्धान्त सर्व महापुरुषोंने मान्य छ, वधाए तेने उच्चकोटिए पहोंचाडवानो प्रचार को छे, महर्षि 'पतंजलिए' तो तेने सर्वथी मोटुं स्थान आप्युं छे, पाच यमोमा सौथी प्रथम 'यम' जीवरक्षा छे, "क्रोध-लोभ-मोहने लीधे हिंसा करवी, कराववी, भने अनुमोदवी तेने वितर्क कहे छ, भने ते पापर्नु परिणाम तेमना मते अनन्त दु.ख वताववामां आव्युं छे।" कोई जग्याए तो अहिंसानी प्रशसा एटले सुधी करवामा आवी छे के प्राणिओनी साथे वैर भाव पण त्यागी देवो जोइए । त्यारेज साधक अहिंसा साधी शके छ। श्रीमद् उमास्वामीए-तत्त्वार्थसूत्रमा कयुं छे के "जे कोई जीव प्रमाद अर्थात् असावधानता युक थईने मनो योग-वचन योग अने काययोग द्वारा प्राणोनो 'अतिपात' वा 'व्यपरोपण' करे छे तेने हिंसा कर कहे छ। हिंसा करवी-मारवु-प्राणोनो अतिपात त्याग अथवा वियोग करवो, प्राणोनो वध करवो, जीवने कायथी अलग करचो, भवान्तर अथवा गत्यन्तरमा पहों. चाडी देवो, अगर प्राणोनुं व्यपरोपण करवू, ए वधा शब्दो एकार्थवाची छ । जो कोई जीव प्रमादी अर्थात् मद विषय-कषाय-निद्रा अने विकथाने वश थईने एवं कार्य करे, पोताना वा परना प्राणोना व्यपरोपणमा प्रवृत्त वने, त्यारे ते हिंसक हिंसाना दोपनो भागी कहेवाय छे, प्रमादनो त्याग करीने प्रवृत्ति करवावाळाना शरीरादिकना निमित्तथी जो कोई जीवनो वध थई जाय तो ते दोपनो भागी कहेवातो नथी । एटले 'अप्रमत्त' अवस्थानुं बीजु नाम 'अहिंसा' छ।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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