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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १५१ 'ज्ञातपुत्र' महावीर प्रभुने कहा है कि मर्यादामें रहनेवाले साधु इस दोषको भलिभान्ति देखकर थोडासा भी कपट पूर्वक झूठ न बोलें ॥ ४९ ॥ __इस दोषको देखकर निम्रन्थ रात्रि भोजन छोडदे, क्योंकि 'ज्ञातपुत्र' ने इसके दोष प्रत्यक्षमें वताए हैं। ___"इस प्रकार अनुत्तरज्ञानी अनुत्तरदर्शन युक्त अर्हन् प्रभु 'ज्ञातपुत्र' महावीर विशाला नगरमें इस प्रकार व्याख्यान करते थे ॥ १८॥" इन प्रमाणोंके अतिरिक्त इस अध्यायमें तो २-१४-२१-२३-२४ की गाथाओंमे प्रभुकी स्तुति 'ज्ञातपुत्र' शब्दका ही सकेत रखकर की गई है। इस तरह श्रीजिनागमके प्रमाणभूत ग्रन्थोंमें 'नायपुत्त' या 'नातपुत्त' को भगवान् महावीरके वंशवाची नामका उपयोग अनेक स्थलों पर पुष्कल रूपमें किया है, इन सब शब्दप्रयोगोंके उद्धरण करने की यहा जरासी आवश्यकता भी प्रतीत नहीं होती । मात्र हेमाचार्य ने परिशिष्टपमे जो 'ज्ञातनन्दन' भगवान् महावीरको वंदन किया है उसीका यहा उद्धरण देकर अगाडी वढ चलेंगे। उन्होंने मंगलाचरणमें कहा है कि-"जो कल्याण वृक्षोंका वगीचा है, श्रुतिरूप गंगाका हिमालय है, विश्वकमलके लिए सूर्यकी भांति है उस ज्ञातनन्दन महावीरको में नमस्कार करता हूं।" बौद्धपिटकोंमें भगवान् महावीर का अपना उनके शिष्योंको और उनके सिद्धान्तोंका परिचय उनके वंशवाची 'नाथपुत्त' या 'नाटपुत्त' के शब्दव्यवहारसे ही दियागया है। उनके श्रमण निम्रन्थोंके लिए 'नाथपुत्तीय' शब्द का उपयोग किया गया है । इस नामके अतिरिक्त भगवान् महावीरके जीवन सम्बन्धी परिचयके लिए अन्य किसी शब्दका प्रयोग किया हो यह देखने में नही आया, सिर्फ 'नाथपुत्त' के साथ 'निग्गंठ' शब्द का प्रयोग हुआ है । मगर वह शब्दतो उनकी साधु अवस्थाका सूचक है। और वह 'नाथपुत्त' शब्दका विशेष्य न हो कर एक विशेषण है।
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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