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________________ १४६ , वीरस्तुतिः। । "इन तीनों भुवनोंमें ब्रह्मचर्य नामक व्रत ही प्रशंसनीय है, जो इसे निर्मलभावोंसे पालते हैं वे पूज्य पुरुषों द्वारा भी पूजित होते हैं।" "जो ब्रह्मचर्य पालनमें अनुरक्त रहते हैं वे दश प्रकारके मैथुनोंका सर्वथा त्याग कर देते हैं।" जैसे (१) शरीरका संस्कार-शृंगारादिकरना। (२) पुष्ट रसका सेवन करना। । (३) गाना-वजाना-देखना-सुनना। (४) स्त्रीका संसर्ग करना । , (५) स्त्रीमें किसी प्रकारका सकल्प-विचार करना । (६) स्त्रीके अंग उपागोंको देखना । (७) उसे देखनेका सस्कार बनाए रखना। (6) पूर्व कृत भोगोंका पुनः स्मरण करना (९) अगाडीके लिए भोगने की चिन्तवना करनी । (१०) शुक्र (वीर्य)का क्षरण कर देना। • ये दश भेद मैथुनके हैं, ब्रह्मचारीके लिए ये सर्वथा त्याज्य हैं। "जिस प्रकार किम्पाकफल (इन्द्रायण फल) देखने सूंघनेमें रमणीय है परन्तु विपाक होनेसे तो हलाहल विषका काम कर डालता है। इसी भान्ति यह मैथुन भी कुछ काल पर्यन्त रमणीक और सुन्दर तथा सुखदायक प्रतीत होते हैं, परन्तु विपाक समय यानी अन्त समयमें बहुत ही भयप्रद प्रतीत होते हैं ।" "जो पुरुष काम और भोगोंमें विरक्त होकर सदा ब्रह्मचर्यका सेवन करते हैं उनको भावशुद्धिके लिए दश प्रकारका मैथुन त्याग देना चाहिए । क्योंकी इन दोषोंके त्यागे विना भावोंमें निर्मलता नहीं आती। उत्तम भाव-ही कामके वेगको रोक सकता है।" कहा भी है कि-"सर्पसे डसे गए प्राणीके सात वेग होते हैं, परन्तु कामरूपी सर्पके द्वारा डसे गए जीवोंके दश भयानक और वडे वेग होते हैं, वे ये हैं।" कामके उद्दीपनसे पहले पहल चिन्तामें घिर जाता है कि कामका सम्पर्क क्योंकर हो, दूसरे वेगमें उसे देखनेकी इच्छा हो जाती है, ३ दीर्घ निश्वास लेकर छोडता है, और कहता है कि हाय उसे देख भी न सका, ४ ज्वर हो आता है, ताप मान वढ जाता है, ५ विना ही आगके शरीर जलने लगता है, ६ भोजन नहीं रुचता, ७ महा मूर्छा हो जाती है, कुछ भी चेत नहीं रह पाता। ८ उन्मत्त यानी पागल सा वन जाता है, आय वाय वकने लगता है, ९ प्राणों का रखना दूभर हो जाता है तथा उसे यह सदेह हो ,जाता है कि में अव जीवित नहीं रहूंगा। और दशवां वेग ऐसा आता है कि जिससे
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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