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________________ संस्कृतटीका-हिन्दी-गुर्जरभाषान्तरसहिता १४५ इसी भांति स्त्रीका भी परमधर्म है कि-पर पुरुष चाहे रूपमें, ऐश्वर्यमें, कलामे कितना भी बढा चढा क्यों न हो, उसे जहरका पुतला समझ कर त्याग देना चाहिए जिस प्रकार सीताने रावणको छोड दिया था । वही स्त्री देवोंसे पूजित होती है जिसने मैथुनके विकार को जीता है । मैथुन नाम जोडे का है, प्रकृति में स्त्री पुरुषका ही जोडा समझा जाता है, दोनोंका परस्पर संयोग या सभोगके लिए जो भावविशेष उत्पन्न होता है अथवा दोनों मिलकर जो संभोग क्रिया करते हैं उसको मैथुन कहते हैं, और उस मैथुनको 'अब्रह्म' कहते हैं । इसमें भी प्रमत्तयोगका सम्बन्ध है, क्योंकि उस अभिप्रायसे जो भी क्रिया की जायगी, फिर चाहे वह परस्पर दो पुरुष या दो स्त्री ही मिल कर क्यों न करें, अथवा अनंग क्रीडा आदि ही क्यों न हो वह सव अब्रह्म है, और जो प्रमादको छोडकर क्रिया करते हैं उसको मैथुन नहीं कहते। जैसे कि पिता भाई आदि पुत्री भग्नि आदिको जव गोदमे लेकर प्यार करते हैं तब वह अब्रह्म नहीं कहला सकता, क्योंकि उनमें 'प्रमत्तयोग' नहीं है। इस प्रमत्तयोगकी यदि एक अशमें निवृत्ति की जाय तो वह ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है । जैसे कहा है___ "माता वहन बेटीकी तरह परस्त्रीको जानता हुआ जो अपनी विवाहिता स्त्रीमें ही सन्तोष करता है, वह चौथा अणुव्रत कहलाता है।" "उत्तम पुरुष परस्त्रीको व्याधि भौर दुखके समान समझ कर दूरसे ही छोड़ देते हैं, क्योंकि परस्त्री सदैव दु खोंका घर है, और सुखोका नाश करनेके लिए प्रलयकी आग जैसी सिद्ध हुई है।" "जो स्त्री अपने पतिको छोड कर परपुरुषमें रमण करने चली जाती है, उसे परले सिरेकी निर्लज्ज समझना चाहिए। जव इस आचरणसे अपनी स्त्रीका भी विश्वास नहीं है तत्र परस्त्रीका किस वात पर विश्वास किया जा सकता है।" "परस्त्रीका सेवन करके पुरुष क्या सुख पाता है। केवल नरक निगोदमें रुलनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं। अतः मनुष्योंको 'ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करना चाहिए।" "इस व्रतका आश्रय-लेकर योगीजन परब्रह्म परमात्माका और अपना खरूप अमेदरूपसे जान लेते हैं । उसीका अनुभव करते हैं, और इसे धीर वीर पुरुष ही धारण करनेमे समर्थ है। अल्पसत्ववाले, शीलरहित, इन्द्रियोंके दास, दुर्वल पुरुषतो इसका खममे भी समाचरण, नहीं करसकते, क्योंकि यह ब्रह्मचर्य असिधारा महाव्रत है।" वीर. १०
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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