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________________ १३२ . वीरस्तुतिः। सदैव यही भाव रखता है कि किसी भी तरह जगत् के जीवोंका कल्याण मंगल या भलाई करूं, परोपकार में स्वयं लग कर औरों को भी लगानेका प्रयत्न करूं अपनेमें दोषमात्रका लेश तक न रख कर औरों को भी निर्दोष बनानेका सतत प्रयत्न करूं । आत्माके अनन्त सुखसे सुखी वन कर औरों को भी सुख के स्थान पर ले जाऊं परन्तु यदि कोई प्राणी इन भावोंके विपरीत चल कर लोभ का दास बन कर, जवानकी लालसाके जालमें फँसकर, धन कमानेकी इच्छासे, या लडाईमें विजय पानेकी आशासे, अपने मनको बहलानेकी गरजसे निरपराध और दीन जीवों को मार डालता है, तव इस पाप दोष से दूष्य होकर उस अधम या खार्थी को नरक-(दु.ख) में अवश्य जाना पडता है। इसी सिद्धान्तकी सब प्रकारके महापुरुषोंने रक्षाकी है । सब ने जन्म लेकर इसको उच्चकोटिमें लानेका प्रचार किया है। महर्षि पतंजलि' ने तो इसको ही वडा पद दिया है। पाच यमोंमें जीव रक्षा सबसे पहला यम है। । . “किसीने क्रोध, लोभ, मोहके वश होकर हिंसा करने, कराने, अनुमोदन करनेको वितर्क कहा है। इस पापका परिणाम उनके मतमें अनन्त दु:ख फल बताया गया है।" "कहीं अहिंसाकी प्रशंसा यहा तक की गई है की प्राणधारियोंसे वैर भाव तक त्यागदेना चाहिए। साधक तव ही अहिंसाका साधन कर सकता है।" । श्रीमदुमाखामीने भी तत्वार्थसूत्रमें यही कहा है कि जो कोई भी जीवं प्रमाद अर्थात् असावधानता युक्त होकर काययोग, वचनयोग और मनोयोगके द्वारा प्राणोंका 'अतिपात' या व्यपरोपण करता है, उसको 'हिंसा' कहते हैं। हिंसाकरना, मारना, प्राणोंका अतिपात-त्याग अथवा वियोग करना, प्राणोंका वध करना, जीव-कायसे अलग करके देहान्तरको सक्रम करा देना, भवान्तर-त्यन्तरको 'पहुंचा देना, और प्राणोंका व्यपरोपण करना, इन सब शब्दोंका एक ही भाव है। “यदि कोई जीव प्रमादी अर्थात् मद, विषय, कषाय, निद्रा, विक्थाके वश होकर ऐसा कार्य करता है, अपने या परके प्राणोंका व्यपरोपण करनेमें प्रवृत्त होता है, तब वह हिंसक हिंसाके दोषका भागी समझा जाता है। परन्तु प्रमाद छोड कर प्रवृत्ति करनेवालेके शरीरादिके निमित्तसे यदि किसी जीवका वध होजाय
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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