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________________ ८६ : , वीरस्तुतिः। .. भगवान्का शरीर भी प्रभाशाली था, वे अज्ञानान्धकारके नाशक थे, भगवान्का शरीर खयं प्रकाशित था, तथा औरोंको ज्ञान का प्रकाश भी देता था ॥ १३ ॥ — भाषा-टीका-पृथ्वीके विचले प्रदेशमें जम्बूद्वीपके मध्यस्थलमें यह मेरु पर्वत समस्त पहाडोंके राजाकी तरह स्थित है। सौमनस, विद्युत्प्रभ, गन्धसादन, माल्यवन्त इन चार दाढापतोंसे वह बडा मनोहर लंगता है, वह पृथ्वीके सम भाग में दशहजार योजन विस्तीर्ण है, ग्यारह २ हजार योजन पर एक २ हजार योजन घट कर शिखर पर एक हजार योजन रह जाता है। वह जगत्में सूर्यकी तरह शुद्ध कान्ति और निर्मल आकृति युक्त है। और जिसमे अनेक वहु मूल्य धातु और उत्तमरत्न पाए जाते हैं। वीर पक्षमें-सोनेकी तरह जिनके शरीरकी चमक दमक है | जिनके गुण चान्दकी तरह स्वच्छ हैं। जिनकी स्तुतिएँ महती हैं। जिन्हें अपुनरावृत्ति रूप अक्षर-मोक्ष प्राप्त है। जिनका सत्संग अनन्त सुख दाता है। सुमेरुकी तरह मनोरम हैं, जो सूर्यकी किरणोंकी तरह तेजखी हैं ॥ १३ ॥ . गुजराती अनुवाद-पृथ्वीना मध्य भागमां सर्व पर्वतोनो इन्द्र मेरु पर्वत सूर्यनी पेठे शुद्ध कान्ति भने निर्मल आकृतिवाळो छ । सौमनस, विद्युप्रम, गन्धमादन, माल्यवान, ए चार दाढाओथी पर्वत वहुँ सुन्दर देखाय छ । ते पृथ्वीना समभागमा १०००० योजन पहोळो छ । अग्यार अग्यार हजार योजन पर एक एक हजार योजन घटतां शिखर पर एक हजार योजन पहोळो छ । तेमा अनेक वहुमूल्य धातुओ एवं रत्नो मळी आवे छे । वीर पक्षे. सुवर्णसमान जेना शरीरनी शोभा छे, जेना गुणो चन्द्रमानी पेठे स्वच्छ छ । जेणे अपुनरावृत्तिरूप अक्षर-मोक्ष प्राप्त करेल छ, जेमनो सत्सग अनन्त सुख दाता छ । सुमेरु नी पेठे जे मनोहर छे, ने सूर्यना किरण समान तेजखी छे ॥ १३ ॥ सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स; पवुच्चई महतो पव्वयस्स। एतोवमे समणे नायपुत्ते, जाईजसोदसणनाणसीले ॥१४॥
SR No.010691
Book TitleVeerstuti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshemchandra Shravak
PublisherMahavir Jain Sangh
Publication Year1939
Total Pages445
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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