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________________ न्तु पुन सरसके हृदया। एक नवीन ही प्रकाश झलक गया, इस लो वह परिस्थितिपक अर्थ करने लगा। अब उसके ध्यानमें औरयाउ कि वह बात यद्यपि ठीक है कि मनुष्यका स्वभाव जैसी परिस्थिति होती है उसीके अनुसार बनता है तथापि, यदि मनुष्य चाहे, तो वह अपनी परिस्थितिको बदल भी सकता है । इस प्रकार विचारक्रान्ति होनेसे उसे यह अच्छी तरह मालूम होने लगा कि परिस्थिति-मत और दैव-मतमें कितना अन्तर है और उसके सिरपरसे उद्विग्नताका बोझा बहुत कुछ उतर गया । राजनैतिक विपयोंमें अबतक उसका यह मत था कि प्रतिनिधिसत्ताक राज्यपद्धति सब प्रकारकी परिस्थितियोंमें उपयोगी और हितकारिणी है । अर्थात् चाहे जो काल हो, चाहे जो देश हो, चाहे जो समाज हो, उसकी उपयोगिता और हितकारिता कम नहीं होती। परन्तु अब उसका यह विचार बदल गया । वह समझने लगा कि राज्य-शासनके लिये जुदा जुदा तरहकी राज्यपद्धतियाँ केवल साधन हैं और एक ही प्रकारका साधन सब जगह उपयोगी नहीं हो सकता है । इस लिये यदि किसी देशमें कोई राज्यपद्धति शुरू करनी हो, तो पहले निष्पक्षवुद्धिसे इस बातका पता लगाना चाहिये कि वहाँके लोगोंकी शक्ति, बुद्धि, समाज-व्यवस्था आदि कैसी है और फिर जो उचित समझी जाय वही राज्यपद्धति शुरू करनी चाहिए । परन्तु इंग्लेंडके विषयमें उसका जो मत था उसमें अन्तर नहीं पड़ा । वह इसी मतपर कायम रहा कि इंग्लैंडकी योग्यता और परिस्थिति प्रतिनिधिसत्तात्मक पद्धतिके ही योग्य है । धनिकों जमींदारों और पदवीधारी पुरुषों की प्रबलतासे इंग्लैंडकी सामाजिक नीति और सामाजिक सुखका घात हो रहा है । इसलिये वह चाहता था कि वहाँ जितनी
SR No.010689
Book TitleJohn Stuart Mil Jivan Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages84
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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