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________________ ७२ प्रवचन-सुधा तो ग्रहों की बातें हैं। दुनियां कहती है कि आज ज्योतिप का जमाना लद गया । अव तो वैज्ञानिक चन्द्रमा तक जा पहुंचे हैं। परन्तु मैं कहता हूं कि वे भले ही कहीं पहुंच जावें, पर जन्म-समय के पड़े ग्रहमानों को कोई भी अन्यथा नहीं कर सकता है। ये ग्रह-नक्षत्र किसी को भला या बुरा कोई फल नहीं देते हैं ? वे तो मनुष्य के प्रारब्ध के सूचक है और जो व्यक्ति जैसा प्रारब्ध संचित करके माता है, वह वैसे फल को भोगता ही है।। प्रभु के वचन कानों में हाँ, तो एक बार वह रोहिणिया चोर कहीं जा रहा था। मार्ग में भगवान महावीर का समवसरण आ गया। प्रभु की वाणी विना लाउडस्पीकर के ही चार-चार कोस तक चारों ओर बरावर सुनाई दे रही थी। अतः वह रोहिणिया चोर के कानों तक भी पहुंची। उसने किसी आने-जाने वाले व्यक्ति से पूछा कि यह किसकी आवाज सुनाई दे रही है ? उसने उत्तर दिया-यह भगवान महावीर की आवाज है। वे समवसरण में उपदेश दे रहे हैं। यह सुनते ही उसे याद आया कि मरते समय मेरे पिता ने इनकी वाणी को नहीं सुनने की प्रतिज्ञा कराई थी। अतः उसने तुरन्त अपने दोनों कानों में अगुलियां डाल दी। इस प्रकार कानों में अंगुली डाले हुये कुछ दूर आगे चला कि एक ऐसा तेज कांटा लगा कि उसके जते को चीर कर वह पैर के भीतर घुस गया। भाई, कांटा भी एक भारी बला है। मारवाड़ी में कहावत है कि चोर की माँ ने चोर से कहा-तेरे शरीर में कहीं घाव लग जाये तो कोई बात नहीं, परन्तु पर में कांटा नहीं लगना चाहिये । पैर में कांटा लगते उसे बैठना पड़ा। वह कान में से एक हाथ को हटा कर कांटे को खींचने लगा। मगर वह इतना गहरा घुस गया था कि प्रयत्ल करने पर भी काटा नहीं निकला । तव दूसरे हाथ को भी कान के पास से हटा कर दोनों हायों से जोर लगाकर उसे खोंचा। इस समय उसके दोनों कान खुल गये थे, अत: भगवान की देशना नहीं चाहते हुए भी उसके कानों में पड़ गई। उस समय भगवान् कह रहे थे कि देवताओं की पहिचान के चार चिन्ह हैं -- एक तो उनके शरीर की प्रतिच्छाया नहीं पड़ती है, दूसरे वे भूमि का स्पर्श नहीं करते हैं, तीसरे उनके नेत्रों की पलकें नहीं झंपती हैं और चौथे उनकी पहिनी हुई माला कभी मुरझाती नही है। यदि ये चारो चिन्ह दृष्टिगोचर हों तो उसे देव मानो । अन्यथा पाखंटी समझो। ये चारों ही बातें उसके हृदय में उतर गई । वह कांटा निकालकर वहां से चल दिया और मन में गोपने लगा कि आज तो बहुत बुरा हआ जो बाप की शिक्षा से विपरीत
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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