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________________ रवचन-न्धा आते ही ऐसे खिसकते हैं किट टने पर भी पना नही चलता और लोटार मुख भी नही दिखाते है । इमसे यही भान होता है कि समाज गौरत, यश और महत्त्व कायम रख सकने वाले बड़े लोग होने पर गये बीर उनी गेले पडने से जो काम करने की भावना और फूति पैदा होनी चाहिए थी, बह पैदा नहीं होती, प्रत्युत भीतर ही मौतर अनेक जन पैदा हो जाती है। आज हम तो दो ही बातें सीखे है--कि हर एक की आलोचना करना और निन्दा करना । आप लोग ही बतायें कि फिर नमाज आगे में बह सकता है ? माई, मुक्ति का मार्ग तो अभी बहुत दूर है, हम तो अभी मानव बहलाने के योग्य मुक्ति के मार्ग पर भी नहीं चल रहे हैं। दो भाइयो को डाने पास-पान हैं, तो एक दूसरे के ग्राहको को बुलाता है और एक दूसरे को चोर बतलाता है। बताओ-फिर दोनो माहवार कहा रहे ? हमारा बध पतन इतना हो गया कि जिसकी कोई सीमा नहीं । भाईचारा तो भूले हो, मानवता नक को भूल गये । फल एक भाई ने कहा था कि जब तक ये पगडीवाले हैं, तब तक दुनिया के लोग दुश्मन ही रहेगे। मैं पूछता हू कि यहा पर पगडीवाले अधिक है, या उधाडे माथे वाले ? पगडी बाधने वाले तो थोडे ही है। उनके तो लोग दुश्मन बनते है, आप नगे सिर वालो के तो नहीं बनते ? यदि आप लोग आगे बढफर काम कर लेंगे तो पगडीवाले आपका ही यश गावेंगे और आपके नाम की माला फेरेंगे। परन्तु आप लोगो ने तो दुश्मनी के भय से अपने वेप को ही छोड दिया । दुश्मनो की निन्दा के भय से आपलोग किस किस बात को छोड़ते हए चले जावेगे ? जरा शान्त चित्त हो करके सोचो, विचारो और भागे आकर के समाज मे सगठन का विगुल बजाओ, तभी कुछ काम होगा। केवल दूमरो वी टीका-टिप्पणी करने या आलोचना-निन्दा करने से न आप लोगो का उत्थान होगा और न समाज का हो। आज एक होने का सुवर्ण अवसर प्राप्त हुआ है। इसे हाथ से मत जाने दो और कुछ करके दिखाओ, तभी आप लोगो का गौरव है। आलमगीर औरगजेव-बादशाह ने वीर राठौर दुर्गादास को सन्धि के लिए दिल्ली बुलाया और वे दिल्ली पहुचे तव वादशाह के पास अपने आने की सूचना भेजी। बादशाह ने सन्तरी से कहा-----भीतर लिवा लाओ, परतु उनके हथियार वहीं पहरे पर रखवा आना । जैसे ही सन्तरी ने हथियार रखकर भीतर किले मे चलने को कहा, वैसे ही दुर्गादास बादशाह से विना मिले ही वापिस चले आये। तभी तो उनके विपय में यह प्रसिद्ध है दुर्गो आसकर्ण को, नित उठवागो जाय । अमल औरग रो उतरे, दिल्ली धरका खाय ।।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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