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________________ धर्मकथा का ध्येय ३३६ भगवान महावीर के समय चम्पानगरी में सुदर्शन नाम का एक बहुत धनी सेठ रहता था। उसके अपार धन-सम्पत्ति थी। परन्तु वह सदा इस बात से चिन्तित रहता था कि मैं इस धन-वैभव की रक्षा कैसे करू ? किस काम में इसे लगाऊं? धन के लिए चोरों का खतरा है, डाकुओं का आतंक है और राज्य का भी भय है। इसी चिन्ता से वह भीतर ही भीतर घुलने लगा। उसे चिन्तातुर देखकर उसकी पत्नी मनोरमा ने एक दिन पूछा--नाथ, आज कल आप इतने चिन्तित क्यों दिखाई देते हैं ? उसने अपनी चिन्ता का कारण बताया । मनोरमा सुनकर बोली- प्राणनाथ, आप व्यर्थ की चिन्ता करते हैं ? सदर्शन बोलाप्रिये, इस चिन्ता से मुक्त होने का क्या उपाय है ? मनोरमा बोली-स्वामिन् ! भगवद्-वाणी सुनिये । सुदर्शन ने पूछा-भगवद्-वाणी कौन सुनाते हैं ? मनोरमा ने कहा-निन्थ श्रमण साधु सुनाते हैं । सुदर्शन ने पुनः पूछा – क्या आप उन साधुओं को जानती हैं ? मनोरमाने कहा- हां नाथ, मैं उन्हें अच्छी तरह से जानती हूँ और सदा ही उनके प्रवचन सुनने जाती हूं। सुदर्शन वोला-तव आज मुझे भी उनके पास ले चलो। यथासमय मनोरमा पति को साथ लेकर प्रवचन सुनने के लिए गुरुदेव के चरणारविन्द में पहुंची और उनको वन्दन करके दोनों ने उनकी वाणी सुनी। सुदर्शन को वह बहुत रुचिकर लगी और मोचने लगा--ओ हो, मैंने जीवन के इतने दिन व्यर्थ ही विता दिये । और परिग्रह के अर्जन और संरक्षण में ही जीवन की सफलता मान ली। आज मुझे जीवन के उद्धारक ऐसे सन्त पुरुपों का अपूर्व समागम प्राप्त हुआ है। इसके पश्चात् वह मनोरमा के साथ सन्त की वाणी सुनने के लिए जाने लगा । धीरे. धीरे उसके भीतर ज्ञान की धारा प्रवाहित होने लगी और वह वस्तु-स्वरूप का चिन्तक बन गया। कुछ समय पश्चात् मुनिराज विहार कर गये। परन्तु सुदर्शन का हृदय वैसी वाणी सुनने के लिए लालायित रहने लगा। इसी समय भगवान महावीर का समवसरण चम्पा में हुआ और नगरी के वाहिरी उद्यान में भगवान विराजे । नगरी के लोगों को जैसे ही भगवान के पधारने के, समाचार मिले तो सभी नागरिक, ग्लोग भगवान्, के बदन और प्रवचन सुनने के लिए पहुंचे। सुदर्शन सेठ भी अपनी पत्नी के साथ गया और भगवान् के दर्शन कर और उनकी अनुपम वीतराग शान्त-मुद्रा देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। जव उसने भगवान् की साक्षात् वाणी सुनी तो उसके आनन्द का पार नहीं रहा । प्रवचन के अन्त में उसने खड़े होकर कहा--भगवन्, मैं आपके प्रवचन की रुचि करता हूं, प्रतीति करता हूं और श्रद्धा करता हूं। परन्तु इस समय घर-बार छोड़ने के लिए अपने को असमर्थ पाता हूं। कृपया मुझे श्रावक के व्रत प्रदान कर अनुगृहीत कीजिए । तत्पश्चात् उसने भगवान से पांच
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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