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________________ ३२८ प्रवचन-सुघा हे मधुसूदन, ये तो मेरे गुरुजन हैं, पितामह हैं, पुत्र हैं, कोई मामा है, कोई श्वसुर है, कोई पौत्र है, कोई साला है और कोई स्वजन-सम्बन्धी है । ये लोग भले ही मुझे मारें, पर मैं इन अपने ही लोगों को नहीं मारना चाहता हूं, भले ही इसके बदले मुझे त्रैलोक्य का राज्य ही क्यों न मिले? यह कहकर अर्जुन ने अपने हाथ से गाण्डीव धनुप को फेंक दिया। जब श्री कृष्ण ने देखा कि सारा गुड़ ही गोबर हुआ जाता है, तब उन्होंने अर्जुन को सम्बोधन करते हुए कहा--- न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे । यह जीव न कभी उत्पन्न होता है और न कभी मरता है, न कभी हुआ है और न कभी होगा। यह तो शाश्वत, नित्य, अज और पुराण हैं । यह शरीर के मारे जाने पर भी नहीं मरता है। किन्तु वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपरागि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। जसे मनुप्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये दूसरे वस्त्रों को धारण करता है, इसी प्रकार जीव भी पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को धारण करता है। इसलिए तू विकल और कायर मत बन । किन्तु निर्भय होकर युद्ध कर । ये कौरव तेरे बहत बड़े अपराधी हैं। इन लोगों ने तुम्हारे साथ छ: महा अपराध किये हैं । पहिले तो इन लोगों ने भीष्म को विप दिया । दूसरे द्रौपदी का चीर हरण कर लाज लेनी चाही । तीसरे तुम्हारा राज्य लिया। चौथे जंगल में तुम लोगों को मारने के लिए आये ! पांचवे गायों को घेर कर ले जाने का प्रयास किया और छठा अपराध यह कि तुम लोगो को मारने के लिए फिर आये हैं । इसलिए इन दुष्टों को दण्ड देना ही चाहिए । अर्जुन कहीं फिर ढीला न पड जाय, इसलिए श्री कृष्ण ने फिर कहा नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारतः ॥ अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोस्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । तस्मादेनं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ इस आत्मा को न शस्त्र छेद सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न पानी गला सकता है, न पवन सुखा सकता है। अतः यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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