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________________ सिंहवृत्ति अपनाइये ! ३१६ सेठानी उसे और उसके बच्चो को प्रेम पूर्वक अपने घर लिवा लाई और उसकी यथोचित शुद्धि करके घर में वहू के समान वस्त्राभूपण पहिनाकर रख लिया और भीतर का सारा काम काज उसे सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्म-साधना करने लगी। __ इधर राजा ने उस भूतपूर्व नामी चोर और वर्तमान में नामी साहूकार को बुलाकर के कहा-देख, आज से नगर भर की सुरक्षा का उत्तरदायित्व तेरा है । यदि कही पर कोई चोरी होगी तो तुझे जवाब देना होगा। उसने यह मंजूर किया और सब चोरो को बुलाकर कहा-भाइयो, क्या अब भी तुम लोगों को नकली गहने पहिनने हैं, अथवा असली सोने के जेवर पहिनना है ? यदि आप सुखपूर्वक रहना चाहते है तो आज से चोरी करना छोड़ दो और तुम्हारी रोजी के लिए मैं पूजी देता हू सो जिसे जो अच्छा लगे, वह धधा करके अपना और अपने परिवार का भरण-पोपण करो ! सब लोगों ने एक स्वर से उसकी बात को स्वीकार किया। उसने भी सवको यथोचित पूँजी देकर हीले से लगा दिया । अव नगर में चोरी होना विलकुल वन्द हो गया। उसका यश सर्वे और फैल गया। जब उस लड़के ने सारा काम काज संभाल लिया और नगर में सर्व प्रकार का अमन-चैन हो गया, तव एक दिन सेठ ने बिरादरी वालों को निमंत्रण दिया । जब सब लोग खा-पीकर बैठे तो सेठ ने पूछा-~-कहो भाइयो, मेरा काम आप लोगों को पसन्द आया या नहीं? सवने एक स्वर से कहासेठजी, आपने वडा अच्छा काम किया । सेठ ने कहा-भाइयो, मैं आप लोगो से यही कहलाना चाहता था । अब आप लोग मेरे स्थान पर उसे ही मानें। मैं अब घर बार छोड़कर आत्मकल्याण करना चाहता हूं। सेठजी की भूरिभूरि प्रशंसा करते हुए कहा---आप इस ओर से निश्चिन्त होकर धर्म साधन कीजिए, आपके इस पुत्र को हम साप जैसा ही मानेंगे। यह कहकर सब लोग अपने अपने घरो को चले गये ।। कुछ दिन पश्चात् सेठानी ने उसे बुला करके कहा-बेटा, तूने घर का और दुकान का काम तो सीख लिया है। अब आत्मा का भी काम सीखेगा, या नही ? वह बोला- हा मां साहब, अवश्य सीखूगा । आप बतलाइये। सेठानी ने अपने कुल मे होने वाले सर्व धर्म कार्यों को समझाकर कहा-देख, जैसे हम ये सब धर्म कार्य करते है, वैसे ही तुझे भी करना चाहिए । उसने स्वीकार किया और सेठानी के द्वारा बताये हुए धर्मकार्यों को यथावत् करने लगा।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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