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________________ आर्यपुल्प कौन? पूछा--तुम युद्ध से कैसे लौट आये ? अर्जुन ने कहा-~-आपके रथ की ध्वजा महीं दिखने से आपको संभालने के लिए आया हूँ। यह सुनते ही युधिष्ठिर ने कहा-अरे, क्षत्रिय-कुल-कलंक, तू शत्रुओं को पीठ दिखाकर आगया ? इसप्रकार भर्त्सनापूर्वक अनेक अपशब्द कहे। तब तक तो अर्जुन को क्रोध नहीं आया। किन्तु जब युधिष्ठिर ने कहा-डाल दे गांडीव धनुष को नीचे । तो यह सुनते ही अर्जुन आपे से बाहिर हो गये और उनके ही ऊपर धनुपवाण चलाने को तैयार हो गये। श्री कृष्ण ने यह देखते ही अर्जुन का हाथ पकड़ लिया और बोले-तू पिता तुल्य अपने बड़े भाई को ही मारने के लिए तैयार हो गया ? अरे, उन्होंने तो तेरा जोश जागृत करने के लिए ही ऐसे शब्द कहे हैं। तेरा अपमान करने के लिए नहीं ! यह सुनते ही अर्जुन की आंखें और हाथ नीचे हो गये । और वापिस युद्ध स्थल को लौट गये। अन्यतीर्थी होते हुए भी परदेशी राजा ने यही सोचा कि स्वामी और नाथ कहनेवाले अनेक है। पर यह सानु मुझे चोर कह रहा है, तो मुझे कुछ शिक्षा देने के अभिप्राय से ही कह रहा है । अनाथी मुनि ने जब राजा श्रेणिक से ही अनाथ कह दिया, तो उन्होंने पूछा-मैं अनाथ कैसे ? मैं तो सहस्रों व्यक्तियों का नाथ हूँ। मुनि ने कहा - क्या तू मौत से अपनी रक्षा कर सकता है, तो श्रेणिक वोले-नहीं। तव मुनि ने कहा--जो मौत से अपनी रक्षा नहीं कर सकता, तो वह अनाथ नही तो और क्या है ? पहिले बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं से भी साधु-सन्त कोई कठोर शब्द वोल देते थे, तो वे उसे सहन करके अच्छे ही अर्थ में उसे लेते थे। आज यदि कोई सन्त किसी मालदार से कुछ कह दे तो उस पर तेवरी चढ़ जाती है। भाइयो, किसी की भी बात को सुनकर उस पर शान्तिपूर्वक विचार करना चाहिए । यही आर्यपना है। और जो किसी बात को सुनकर आपे से बाहिर हो जाते हैं और मरने-मारने को उतारू हो जाते हैं तो यही अनार्यपना है। हमें अनार्यपना छोड़कर आर्यपना अंगीकार करना चाहिए। वि० स० २०२७ कार्तिक शुक्ला १० जोधपुर
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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