SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ प्रवचन-सुधा का और पन्यवाद का व्यामोह छोड़कर और एक होकर उसका मुकाबिला करना चाहिए । धर्मवीरो, तुम लोग तो महावीर के अनुयायी हो। तुम्हें अपने धर्म का और धर्माचार्य का अपमान नहीं करना चाहिए। माज यदि किसी मत के अनुयायी तुम्हारे खिलाफ कोई आन्दोलन छेड़ते है तो तुम्हें उसका समुचित उत्तर देना चाहिए। भारत सरकार का भी कर्तव्य है कि वह इस प्रकार सम्प्रदायवाद का विप-वमन करनेवाले लोगों के बोलने पर प्रतिवन्ध लगा देवें और उन अखवारों पर भी प्रतिबन्ध लगा देवें जो कि साम्प्रदायिकता का प्रचार करते हैं। हम जैनी लोग आर्यपना रखते है और किसी के साथ अनार्यपनेका व्यवहार नहीं करते हैं। फिर भी यदि कोई आगे बढ़कर हमारे साथ अनार्यपनेका व्यवहार करता है, तो हमें भी उसका न्यायपूर्वक उत्तर देना ही चाहिए। सहनशीलता रखिए : पहिले के लोग कितने सहनशील और विचारक होते थे कि किसी व्यक्ति द्वारा कुछ कह दिये जाने पर भी उत्तेजित नही होते थे और शान्ति से उस पर विचार करते थे कि इसने हमें यह शब्द क्यों कहा ? एकवार केशी मुनि ने परदेशी राजा को 'चोर' कह दिया, तो उन्होंने विनयपूर्वक पूछा-भगवन्, मैं चोर कैसे हूँ। जब उनसे उत्तर सुना तो नतमस्तक हो स्वीकार किया कि आपका कथन सत्य है 1 यदि मां-बाप किसी बात पर नाराज होकर पुत्र से कहें कि यदि मेरा कहना नहीं मानेगा तो भीख मांगनी पड़ेगी। परन्तु समझदार पुत्र सोचता है कि यह तो वे हमारे हित के लिए ही कह रहे हैं। क्योंकि कहावत भी है जे न मानें बड़ों की सीख, ले खपरिया मांगे भोख । व्यर्यात् जो बड़े-बूढ़ों की सीख नहीं मानते हैं, वे खप्पर हाथ में लेकर घरघर भीख मांगते फिरते हैं । महाभारत में आया है कि एक वार अर्जुन जव युद्ध में लड़ रहे थे और युधिष्ठिर नहीं दिले तो उन्हें खयाल आया कि कहीं कौरव लोग उन्हे जुआ खिलाकर के सारा राजपाट फिर से न ले लेवे ? यह विचार आते ही उन्होंने पहिले भीम को खबर लेने के लिए भेजा। परन्तु वे मार्ग में ही लड़ाई में उलझ गये और वापिस नहीं आये तो अर्जुन ने सत्यकि को भेजा । जब वह भी खबर लेकर वापिस नहीं पहचा तो सारथी से रथ को छावनी पर लौटा ले चलने के लिए कहा । अर्जुन को युद्ध से माया हा देखकर युधिष्ठिर ने
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy