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________________ आर्यपुरुष कौन ? २६१ सुनेंगे। यद्यपि गांव छोटा-सा ही था, तथापि सत्तर-अस्सी स्त्री-पुरुप इकट्ठ हो ही गये । जव मैं उपदेश दे रहा था, तभी उस वाई का पति रामलाल ब्राह्मण बिलाड़े से घर आया । पोल मे हम लोगों को नहीं देखकर उसने अपनी स्त्री से पूछा - महाराज कहां उतरे हैं ? उसने कहा-अमुक बांभी के यहां ठहरे हैं । ब्राह्मण ने कहा-अरी, तूने उन्हें ठहरने के लिए क्यों नहीं कहा ? वह बोली - मैंने तो उन्हें चोर समझा इसलिए घर में नहीं ठहरने दिया । ब्राह्मण बोला - अरी, तूने यह क्या किया ? महाराज को तो अपने ही घर पर ठहराना था । यह कहकर वह आकर व्याख्यान सुनने लगा। व्याख्यान के पश्चात् अनेक लोगों ने दारु-मांस और बीड़ी-सिगरेट का त्याग किया । व्याख्यान के बाद रामलाल ने मेरे पास आकर कहा-महाराज, आप बांभी के मकान में कैसे उतर गये? मैंने कहा-~-भाई, भले ही वांभी हो, परन्तु जो हमारी भक्ति करता है और आर्य को आर्य समझता है, उसे हम भी आर्य समझते है । जिसमें भाव-भक्ति नहीं और मनुष्यत्व नहीं, उसे हम आर्य कैसे कह सकते हैं। भाइयो, अब आप लोग ही विचार करें कि जिसमें मनुष्यत्व नहीं, उसे मार्य कसे कहा जा सकता है । आप की दृष्टि में भले ही वांभी नीच हो, परन्तु उसके विचार कितने अंचे है। और जिसे आप ऊंच समझते हैं, उसके विचार कितने नीच हैं। भाई, आर्य और अनार्य पना तो आचार-विचार में ही सन्निहित रहता है। कीड़े-मकोड़े से लेकर कोई भी व्यक्ति यदि अपने घर पर आजाय तो आर्य पुरुप उसे अपने ही समान समझते हैं। वे अपने शरीर को जिस प्रकार यतना करते हैं, उससे भी सवाई-डयोढ़ी यतना उसकी है। और उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं माने देता हे ! तभी लोग कहते हैं कि वह भला व्यक्ति है। भला कहो, चाहे आर्य कहीं और चाहे उत्तम पुरुप कहो, ये सब आर्य-शब्द के ही पर्यायवाची नाम हैं । आर्य पुरुप के वचनों में सुकोमलपना होता है और वह अपने द्वार पर आये हुए व्यक्ति से स्वागत करते हुए कहता हैयाइये, विराजिये । मापके शरीर में कोई आधि, व्याधि या चिन्ता तो नही है, यदि हो तो वाहिये, मैं आपकी सेवा में हाजिर हूँ। सोचने की बात है कि ऐसा कहने में कोई धर का पैसा तो नहीं लगा और किसी प्रकार का कोई अन्य खर्च तो नहीं हुआ? परन्तु कितने ही लोगों को ऐसे वचन कहते हुए विचार आता है। आर्यपुरुष जहां भी जाता है और जहां भी जिस बात की कमी है, उसे तुरन्त करने के लिए उद्यत हो जाता है और यदि कोई पुरुप किसी काम के करने के लिए कहता है, अथवा संकट से उद्धार करने की प्रार्थना करता है तो वह सहर्ष स्वीकार करता है । तथा उसे आश्वासन बंधाता है कि
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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