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________________ प्रवचन-सुधा किया, ज्ञानी का अपमान किया और ज्ञान की विराधना की। उसका फल अव ये दोना भोग रह हैं । इनके पूर्व भव का वृत्तान्त इस प्रकार है सो हे गजन् । ध्यानपूर्वक मुनो। ज्ञान को विराधना का दुष्फल आज स तीन भव पहिले तुम्हारा राजकुमार एक सेठ का लटका या और यह गूगी सठ की लडकी उसकी मा थी। जब वह लडका आठ वर्ष का हो गया तो उसने पढने के लिए गुरु की पाठशाला में भेजा। परन्तु वह मन लगा कर कभी नहीं पढना या। जव समझाने पर भी उसने पढ़ने म मन नही लगाया तो गुरु ने ताडना-सर्जना दी। वह घर भाग गया और अपनी मा स बोला- मैं अब पटने नही जाऊ गा क्याकि गुरुजी मुझे बहुत मारते हैं। उसकी मा ने कहा-अब कल से पटने मत जाना और उसकी पट्टी पुस्तक लेकर चूल्हे मे जला दी। जब वह लडका दूसरे दिन पटने के लिए शाला मे नहीं गया तो गुरु ने लडके भेजकर सेठ से उसके नही आन का कारण पूछा । संत ने घर जाकर सेठानी से पूछा कि लडका पढने क्यो नही गया । उसने कहा-मेरा यह फूलसा सुकुमार लडका मारने-पीटने के लिए नहीं है । फिर पढा-लिखा करके करना भी क्या है ? घर मे अटूट सम्पत्ति है । मेठ ने बहुत समझाया और कहा भी कि सम्पत्ति का कोई भरोसा नही, क्षणभर मे नष्ट हो सकती है और ज्ञान तो आत्मधन है, इसे न चोर चुरा सकते हैं, न मागपानी नष्ट कर सकते हैं। ज्ञान से मनुष्य की शोभा है, इत्यादि रूप से बहुत कुछ कहा। मगर वह नहीं मानी और लडके को पढने नही भेजा । धीरे-धीरे वह कुसग मे पडकर दुर्व्यसनी हो गया और घर का मारा धन गवा दिया । उस के दुख से दुखी होकर सेठ भी मर गया। अब वह और उसकी माता दोनो दुख से दिन काटने लगे। एक दिन वह लडका घूमता हुआ जगल मे पहुचा । वहा पर ध्यान मे किसी साधु को देखकर तिरस्कार करत हुए उसने उनके ऊपर थूक दिया और घसीट कर उन्हे काटो पर डाल दिया ? मुनिराज ने यह परीपह शान्ति से सहन किया। मगर इस लड़के ने ये दुष्कर्म वाघ लिये आयु पूर्ण होने पर मरकर वह नरक मे नारकी हुआ। और वहा से निकल कर यह तेरा पुत्र हुआ है और शेष रहे दुष्कर्म का फल भोग रहा है। इसकी मा ने ज्ञान की अवहेलना की और पढाने वाले की निन्दा की, उम पाप के फल मे वह पहिले तो अनेक पशुओ की पर्याय मे घूमी। अब कुछ पाप कर्म के उपशम से यह सेठ के यहाँ गू गी पुत्री पैदा हुई है। उनके पूर्व भव और उसमे उपार्जित कर्म की बात सुनकर राजा और सेठ दोनो ही बडे दुखी हुए। फिर
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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