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________________ ज्ञान की भक्ति २३५ शास्त्रों की पूजा करके उनके आगे भी वही सामग्री चढ़ाते। उस सामग्री को चूहे शास्त्रों को अलमारी से चुरा ले जाते और उसे खाते रहते । साथ ही शास्त्रों को भी कुतरते रहते। कुछ दिनों के बाद जब एक विद्वान् ने जाकर वह अलमारी खोली तो सैकड़ों शास्त्रों का सफाया पाया । भाई, हमारी ऐसी अन्धभक्ति से सैकड़ो अपूर्दशास्त्रों का विनाश हो गया है । ये शास्त्रपूजा की वस्तु नहीं हैं किन्तु स्वाध्याय करने की वस्तु है और स्वाध्याय करके ज्ञान को प्राप्त करना ही सच्ची जान-भक्ति है। ज्ञान के पांच भेद ज्ञान पाच प्रकार के हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इन्द्रिय मन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह मतिज्ञान है । मतिजान से जानी वस्तु को विशेष रूप से जानना श्रु तज्ञान है । द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की मर्यादा के अनुसार भूत-भविष्य तथा वर्तमान की परोक्ष मूर्त वस्तुओं को जानना अवधिज्ञान है। दूसरे के मन की बातों को जानना मनः पर्ययज्ञान है। संसार के समस्त द्रव्यों की त्रैकालिक अनन्त गुण पर्यायों को साक्षात् जानना केवलजान है । प्राणियों को उसकी योग्यता आदि के अनुसार दो ज्ञान थोड़ी-बहुत मात्रा में पाये जाते है । तीसरा अवधिज्ञान देव और नारकों के जन्म से ही हीनाधिक अंश में होता है किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों में से किमी-किसी के उस कर्म के क्षयोपशम विशेष से होता है । चौथ मन.पर्ययज्ञान विशिष्ट संयमधारी साधुओ के ही होता है। पांचवां केवल ज्ञान तो धनघाती ज्ञानावरणादि चार कर्मों के क्षय करने पर तद्-भवमोक्षगामी जीवों के ही होता है। आज के युग में अन्तिम तीन ज्ञान किसी भी मनुष्य के होना संभव नहीं हैं। किन्तु आदि के दोनों ज्ञान अपने पुरुपार्थ के मनुसार अधिक से अधिक रूप में प्राप्त कर सकता है। ज्ञान की महिमा बतलाते हए भगवान ने कहा है जं अण्णाणी कम्म खवेदि भवकोडिसय सहस्सेहि । तं अण्णाणी कम्म खर्वेदि खणमित्तजोगेण ।। - इसी बात को भाषाकारों ने इस प्रकार कहा है कोटि जन्म तप तपै ज्ञान-विन कर्म झर जे । . ज्ञानी के छिन मांहि विगुप्सिते सहज टरेते ।। अज्ञानी जीव करोड़ों जन्म तप करने पर भी जितने कर्मों का क्षय कर पाता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी जीव अपने मन, वचन, काय की गुप्ति से
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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