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________________ ज्ञान की भक्ति २३७ सौभाग्यपंचमी की कथा आज ज्ञान पंचमी है, इसे सौभाग्य पंचमी भी कहते हैं । क्योंकि ज्ञान की वृद्धि के साथ मनुष्य के सौभाग्य की भी वृद्धि होती है। तथा ज्ञान की विराधना करने से दुर्भाग्य बढ़ता है। इसके विपय मे एक कथानक इस प्रकार है____ इसी भरत क्षेत्र में चम्पानगरी का राजा जितशत्रु था। उसके बहुत दिनों की साधना के पश्चात् एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बीरदत्त रखा गया ! जब वह चार-पाच मास का ही था, तभी उसे गलित कुष्ट हो गया। उसकी दुर्गन्ध असह्य होने से उसे तल घर मे रखकर पालन-पोपण किया जाने लगा। मगर ज्यों-ज्यों उसके रोग का उपचार किया गया त्यों-त्यों उसकी अवस्था बढ़ने के साथ वह बढ़ता ही गया। राजपरिवार इससे भारी दुखी था। इसी नगरी में एक जिन दास नाम का सेठ भी रहता था। उसके एक कंचनमाला नाम की पुत्री हुई। वह अति सुन्दर होने पर भी गंगी थी.वोल नहीं सकती थी। जब कभी नगर सेठ राजा के यहां जाता तो परस्पर में वे अपने-अपने दुखों को कहते। एक बार उस नगरी में धर्मघोप मुनि साधु परिवार के साथ पधारे 1 जनता उनके दर्शन-वन्दन और धर्म-श्रवण के लिए गई। उनके प्रवचनों की प्रशंसा सुनकर राजा, और सेठ भी गये । उपदेश सुनकर दोनों बहुत प्रसन्न हुए और व्याख्यान पूर्ण होने पर दोनों ने अपनाअपना दुःख सुना कर पूछा कि भगवन्, हमारे ऐसा कोढी पुत्र किस पाप के उदय से हुआ है और वह पुत्री भी गूगी किस पाप से हुई है ? तथा ये दोनों कैसे ठीक होगे ? कृपासिन्धो, हमें इनके पूर्व भव बताइये और इनके ठीक होने का उपाय भी बताइये । तव धर्मघोष आचार्य ने कहा . कीना है परभव में इन ने, ज्ञानतणा अभिमान । तिनका इनको फल मिला, खुलती नहीं जवान ।। महारोग से देह नित, पावत दुख असमान । ज्ञान तनी आसातना, करते नर अज्ञान ।। यातें इनसे दूर टर, भगती करो महान । अशुभ करम क्षय होय जव, प्रगटे पुण्य प्रधान ।। हे राजन्, मनुष्य हंसते, खाते-पीते और चलते-फिरते हुए में अपने अज्ञान और दुर्भाव से कर्मों को बांध लेता है। उस समय तो उसे इसका कुछ भी पता नहीं चलता है, किन्तु जव ये उदय में आकर फल देते है, तब पता चलता है और पछताता है। इन दोनों ही प्राणियों ने पूर्वभव में ज्ञान का अभिमान
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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