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________________ ज्ञान की भक्ति और मोह को दूर करके अपने आत्मा का यथार्थस्वरूप जानना चाहिए । क्योंकि संसार से छुड़ानेवाला और मोक्ष को प्राप्त कराने वाला आत्मज्ञान ही है। ज्ञान की भक्ति का फल एक सामान्य व्यक्ति की, की गई भक्ति भी हमारे जीवन को अनेक सुखों से समृद्ध कर देती है तो ज्ञान की भक्ति तो साक्षात् मुक्ति को ही देती है । जान आत्मा का गुण है, अत: ज्ञान की भक्ति के लिए हमें सर्व प्रथम ज्ञानी पुरुप के गुण-गान करना चाहिए । ज्ञानी का आदर-सत्कार करना, उसकी सेवा---- सुश्रूषा और वैयावृत्त्य करना, उसके महत्त्व को बढाना और निरन्तर ज्ञान की आराधना करना ही ज्ञान की सच्ची भक्ति है । स्वाध्याय के चौदह दोष चौदह दोपों से रहति स्वाध्याय करना ही ज्ञान की आराधना है। वे चौदह दोष या अतिचार इस प्रकार है-- जं वाइद्ध,१ वच्चामेलियं,२ होणक्खरं,३ अच्चक्खरं,४ पयहीणं,५ विणयहोणं, ६ जोगहीणं,७ घोसहीणं,८ सुदिन', दुठ्ठपहिच्छ्यिं ,१० अकाले कओ सज्झाओ,११ काले न कओ सज्झाओं,१२ असज्झाए सज्झायं,१३ सज्झाए न सज्झायं१४ । इनमें प्रथम दोष वाइद्ध (व्याविद्ध) है, इसका अर्थ है उलट-पुलट करके कहीं का पाठ कहीं बोलना। वच्चामेलियं (व्यत्यानंडित) का अर्थ है अनावश्यक और अनर्थक पाठ को जोड़कर बोलना, यह दूसरा दोप है। शास्त्र में जितने अक्षर लिखे है, उनमें से कुछ अक्षरों को छोड़कर वाचना (हीनाक्षर) नामका तीसरा दोप है। कुछ अधिक अक्षर जोड़कर के बांचना हीणक्खर अच्चक्खर (अधिकाक्षर) नाम का चौथा दोष है। किसी पद को छोड़कर वांचना पयहीण (पदहीन) नाम का पांचवां दोप हैं । विनय-रहित होकर शास्त्र वांचना विणयहीण (विनयहीन) नाम का छठा दोप है। मन, वचन, काय की एकाग्रता के विना शास्त्र पढ़ना जोगहीण (योगहीन) नाम का सातवां दोप है। जिस शब्द का जैसा उच्चारण है, उस को तदनुसार उच्चारण न करना घोसहीण (धोपहीन) नामका आठवां दोप है। सुपात्र को ज्ञान नही देना सट्र दिन्न (सप्टदत्त) नामका नौवां दोप' है । अपात्र को ज्ञान देना दुवपडिच्छिय (दुष्टप्रतिच्छिन्न) नाम का दसवां दोप है । अकाल में स्वाध्याय करना यह ग्यारहवां दोप है। रवाध्याय के काल में स्वाध्याय नहीं करना यह
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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