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________________ विज्ञान की चुनौती होती है और उसको सम्पन्न करने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ता है, तव कहीं भोजन खाने का आनन्द प्राप्त होता है। अब आप लोग ही विचार करें कि भौतिक या आध्यात्मिक उन्नति क्या हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से ही प्राप्त हो जायगी ? कभी नहीं होगी। उसके लिए तो दिन-रात असीम परिश्रम करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सफलता प्राप्त होगी। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से तो सामने थाली में रखा भोजन भी मुख में नहीं पहुंच सकता है । इसलिए अब हमें आलस्य छोड़कर और वणिक्-वृत्ति से मुख मोड़ कर आगे आना चाहिए और भगवद्-प्ररूपित वैज्ञानिक तत्त्वों का प्रसार और प्रचार करने के लिए सन्नद्ध होना चाहिए। ___ आप लोग स्वाध्याय के लिए शास्त्रों के पन्ने लेकर के बैठ जाते है और पढ़ने लगते हैं---'लेणं कालेणं तेणं समएणं' भाई, यह पाठ तो कई बार पढ़ लिया और गुरुमुख से भी सुन लिया है । परन्तु कभी इस वाक्य के अर्थ पर भी विचार किया है कि काल और समय ये दो पद क्यों दिये, जबकि ये दोनों ही एक अर्थ के वाचक है । अर्थात् पर्यायवाची नाम हैं। शास्त्रकार एकार्थक पद के दो वार उच्चारण करने को पुनरुक्ति कहते हैं। किन्तु उक्त वाक्य में पुनरुक्त दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही पद भिन्न-भिन्न अर्थ के बोधक हैं। काल शब्द उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल का बोधक है और समय शब्द उसके छह आरों में से विवक्षित तीसरे, चौथे आदि आरे का बोधक है । जैसे सांप का शरीर पूंछ से लेकर मुख तक वृद्धिंगत होता है, उसी प्रकार जिस काल में मनुष्यो की आयु, काय, बल, वीर्यादि बढ़ते जाते हैं, उसे उत्सपिणी काल कहते हैं और जिस काल में आयु, काय, बल, वीर्यादि घटते जाते हैं, उसे अवसर्पिणी काल कहते है । जैसा कि कहा है आयु काय धन धान्य किम, दो पद चौपद जान । वर्ण गन्ध रस पल थे, दस बोलों की हान ॥ आजकल अवपिणी काल चल रहा है । इस काल में उक्त दस वातों की उत्तरोत्तर हानि हो रही है । अवसर्पिणी काल के चत्रा के समान छह आरे होते हैं । यथा-१ सुपमा-सुपम-२ सुपमा, ३ सुपम-दुपमा,४ दुःपम-सुपमा, दु:पमा और ६ दुःपम-दुःपमा । प्रथम आरे मे सर्वत्र सुख ही सुख रहता है। मनुष्यों की आयु तीन पल्योपम और शरीर-उत्सेध तीन कोश का होता है। इस काल में उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। पुत्र-पुत्री का युगल अपने मां-बाप के जीवन के अन्तिम समय होता है। उनके उत्पन्न होते ही मां-बाप का मरण
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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