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________________ प्रतिसंलीनता तप २१६ लोग कहते है कि साधु-सन्तों को आहार-पानी देने से लोगों के भाग्य खुल जाते हैं। किन्तु मेरा तो भाग्य ही फूट गया । ये महात्मा कितने ऊंचे घराने के हैं, परन्तु चोरी के लक्षण पड़े हैं। यहां पर दूसरा कोई आया नहीं। उनके सिवाय और कौन ले जा सकता है। यह विचार कर वह झट दौड़ा और मुनिराज से कहने लगा- महाराज, एक चीज और वहगनी है, अतः वापिस पधारो और मुझे तारो। मेतार्य मुनि वापिस उसके साथ गये । घरके भीतर ले जाकर वह सोनी बोला- महाराज, आप राजा श्रेणिक के जमाई, जुगमन्दिर सेठ के पुत्र और भगवान महावीर के शिप्य है, तपस्या करते हैं, फिर भी आपने यह काम क्यों किया ? क्या आपने सोने के जो नहीं लिये हैं ? मेतार्य मुनि ने कहा - मैंने नहीं लिए हैं। सोनी बोला--फिर बताओ – किसने लिए हैं ? अब मुनिराज के सामने बड़ी विकट समस्या - आकर के खड़ी हो गई। उन्होंने अपने ज्ञान से जान लिया कि कूकड़ा जी चुग गया है और यहीं पर छिपा बैठा है । अब वे सोचने लगे--क्या किया जाय ? यदि कहता हूं कि मुझे नहीं मालूम तो सत्य महाव्रत नष्ट हो जाता है और यदि नाम बताता हूँ तो यह अभी सोने के जौ के लिए पेट चीरकर उसे मार देगा, तो अहिंसा महाव्रत जाता है। अव इधर कुआ और उधर खाई है। दोनों ही बातों में धर्म जाता है, मैं क्या करूं? बहुत ऊहापोह के पश्चात् उन्होंने निर्णय किया कि चुप रहना ही अब अच्छा है। यह सोचकर उन्होंने मौनधारण कर लिया । लोकोक्ति भी है कि 'मौनं सर्वायसाधनम्' अव मुनिराज ने उसके प्रश्न का कोई उत्तर देना उचित नहीं समझा और उपसर्ग आया देखकर कायोत्सर्ग से खड़े रहे । सोनी के द्वारा दो-तीन बार पूछने पर भी जब मुनि कुछ नहीं बोले, तव सोनी को क्रोध उमड़ पाया और बोला-तू साधु बन गया, फिर भी तेरा बनियापन नहीं गया है ? वता--कौन ले गया है, अन्यथा अभी मैं तेरा कचमर निकाल दूंगा। जब मुनि ने कोई उत्तर नहीं दिया तो उसने घरके किवाड़ भीतर से बन्द कर लिये और धक्का देकर भीतर नौहरे में ले गया। तत्पश्चात वह सोनी पीछे के द्वार से कसाई के घर गया और जानवर के ऊपर से तुरन्त का उधेड़ा हुआ चमड़ा लाया और मोची को बुलाकर के मेतार्य मुनि के माथे पर सिलवा दिया। तथा मुनि को धूप में खड़ा कर दिया । धूप से ज्यों ज्यों वह चमड़ा सूखने लगा, त्यों-त्यों मुनि के मस्तक की नसें तनने लगी। इससे मुनि के असह्य वेदना हुई। परन्तु वे क्षमा के सागर चुपचाप शान्ति पूर्वक सहन करते हुए चिन्तवन करने लगे मांगनेवाला मांगे लेना, आना-कानी काम नहीं, दे दिलसाक ढोल करे मत, ध्याया शुक्लध्यान से ।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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