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________________ आत्मलक्ष्य की सिद्धि २०३ लिए और घर मांडने जा रहा हूँ। मैंने तो सभी कार्य कर लिये हैं अव तो मैं पूरा पतित हो गया हूं। अव क्या हो सकता है ? तब उस शिष्य देव ने कहा---- गुरुदेव, मन की सब शंकाओं को दूर कीजिए। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, आप किए हुए दुष्कृत्यों का प्रायश्चित कीजिए और अपने स्वीकृत व्रतों की शुद्धि कीजिए । आपकी नाव डूबी नहीं है, केवल एक छिद्र ही हुमा है सो उसे वन्द कर दीजिए ! आपने संघ से जाते हुए जो जो दृश्य देखे और बालकों की हत्या की, वे सब मेरे द्वारा दिखाए हुए मायामयी दृश्य थे, उनकी चिन्ता छोड़िए, और पुन: आत्म-साधना में लगिये । आचार्य ने पुनः पूछा-क्या स्वर्ग नरक यथार्थ हैं, या तू ही अपनी विक्रिया से दिखा रहा है ? देव ने कहा- दोनों यथार्थ हैं और मैंने दोनों को ही अपनी मांखों से देखा है । आप उनके होने में रंचमात्र भी शंका नहीं कीजिए । तव आचार्य विचारने लगे हाय, मैं कैसा पागल हो गया कि सव असत्य मानकर अपने संयम रत्न को नष्ट करने पर उतारू हो गया। ऐसा विचारते हुए वे अपने आपको धिक्कारने लगे और पांचो .महाव्रतों की आलोचना करके उन्हें पुनः स्थापित किया । देव ने कहा - गुरुदेव, अब आप वापिस संघ में पधारिये। मैं वहां पहिले पहुंचता हूं। यह कह कर वह देव संघ में पहुंचा और पूछा कि आचार्य महाराज कहां है। संघ, के साधुओं ने कहा- गुरुदेव तो श्रद्धा के डिग जान से संघ छोड़ कर चले गये हैं । तब उसने कहा—वे नहीं गए हैं । मैंने उनको पुनः सम्यक्त्व और संयम में दृढ़ कर दिया है । वे आ रहे हैं । अतः अब आप सब उनके सामने जाइए और सन्मान-पूर्वक उन्हें संघ मे लिवा लाइये । देव के कहने से सव साधु उनके सामने गए और उन्हें पहिले से भी अधिक मान दिया 1 तब आचार्य ने कहा--तुम लोग मुझे क्यों मान दे रहे हो ? मैं तो पतित हो गया हूं, संयम से गिर चुका हूं । तव सव साधुओं ने कहा - 'मध्ये मध्ये हि चापल्यमामोहादपि योगिनाम् ।' हे महाराज, जब तक यह मोह कर्म नष्ट नही होता है, तब तक बड़े-बड़े योगियों के भी बीच-बीच में चलायमानपना आ जाता है, कर्मों की गति विचित्र है। इसलिए आप इसकी चिन्ता मत कीजिए। यदि प्रातःकाल का भूला सायंकाल घर आ जाता है तो वह भूला नही कहलाता है। संघ के लोगो के सन्मानभरे वचन सुनकर आपाढाचार्य ने कहा-यह सब इस छोटे शिप्य का प्रभाव है । यह देर से आया । यदि जल्दी आ जाता तो यह अवसर ही नहीं आता । तव सर्व संघ ने दिनय-पूर्वक कहा—अब बीती बात भूल जाइये और संघ शासन की डोर पूर्ववत् संभालिए। यह कह कर उन्हें नमस्कार किया और पहिले के समान ही उनकी आज्ञा में रहने लगे।
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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