SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०२ प्रवचन-सुधा माता ! तू फट जा, जिससे कि मैं तेरे भीतर समा जाऊँ ? मैं किस कुल का था, मेरी जाति कितनी उच्च थी और मै एक महान आचार्य कहलाता था । परन्तु हाय, मैंने सबको लज्जित कर दिया ? लोग क्या अपने मन में सोच रहे होंगे। आज मेरे ढोंग का पर्दाफाश हो गया और दुनिया ने मेरे गुप्त पाप को देख लिया । अब मैं लोगो को अपना मुख दिखाने के लायक भी नहीं रहा हूं !!! पुन जागरण इस प्रकार जब आपाड़ाचार्य अपना नीचा मुख किए अपनी निन्दा और गहीं कर रहे थे और सोच रहे थे कि ऐसा अपमान देखने की अपेक्षा तो मेरा प्राणान्त हो जाय तो अच्छा है। तव देवता ने सोचा-कि बात अभी भी ठिकाने है । अभी तो ये पौने उगनीस विस्वा ही डुवे हैं, सवा विस्वा वाकी हैं, क्योंकि इनकी आंखों में लाज शेप है, अतः बचने की आशा है । तव उसने तत्काल अपना रूप पूर्वभव के शिष्य के समान हू-बहू बनाया और उनके आगे जाकर कहा–'गुरुदेव, मत्थएण वंदामि' ! आचार्य सोचने लगे, यह कटे पर नमक छिड़कने वाला हिया-फोड़ कौन आगया है ? तभी उस रूपधारी शिप्य ने चरण-वन्दना करके कहा गुरुदेव, मुझे देखो और कृपा करो। जब आचार्य ने आंखें खोली तो देखा कि वह छोटा शिष्य सामने खड़ा है। वे पुनः आंखें बन्द करके सोचने लगे—फिर यह कौन आ गया है ! तभी उन्हें विचार आया कि हो न हो यह वही शिष्य देव है और मुझे प्रतिबोध देने के लिए रूप बनाकर आया है ! तर आंख खोलकर बोले-चेले, 'मत्थएण वंदामि' मोड़ी घणी आई ? वह बोला भगवत्, आपने बहुत जर दी की। भाई, देवलोक में तो दश हजार वर्षों में एक नाटक पूरा होता है। चेले ने कहा-गुरुदेव, मैंने तो वह नाटक देखा ही नहीं और मैं जल्दी ही यहां पर चला आया हूं। परन्तु आपने तो मेरे आने के पहिले ही यह क्या कर दिया है । आचार्य ने पूछा -- तू कहा था ? वह बोला देवलोक मे था। गुरु ने फिर पूछा- क्या देवलोक है ? शिष्य ने कहा- हां, देवलोक है और मैं वहीं से आ रहा हूं। भगवान के वचन बिलकुल सत्य है और स्वर्ग-नरक सब यथास्थान है यह कह कर उसने स्वर्ग और नरक के सब दृश्य दिखाये। फिर कहा-गुरुदेव, आप तो सारी दुनिया की शकाओं का समाधान करते थे। फिर आपके मन में यह संका फैसे पैदा हुई ? आचार्य वोले-तेरे देरी से आने-के कारण शंका पैदा हुई। पर अब तेरे आने से क्या होगा ? मैंने तो नहीं करने योग्य सभी काम कर डाले हैं ? छह बालकों की हत्या भी कर दी, उनके आभूषण भी चुरा
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy