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________________ विचारों की दृढ़ता १७७ पूर्वोपार्जित दुर्दैव को शान्ति के साथ भोगते हुए भविष्य के देव को सुन्दर निर्माण करने के लिए मनुष्य को अपनी शक्ति भर सुन्दर प्रपन करते ही रहना चाहिये । उसका यह वर्तमानकालीन प्रयत्न उसको भविष्यकाल मे सफलता दिलाने के लिये सहायक होगा। आषाढ़भूति को प्रबोधः भाइयो, आप लोगों ने आपादभूति का नाम सुना होगा । वे किसी देश के राजा के यहा प्रधानमत्री, थे और राज्य का सारा कारोवार संभालते थे। एकवार वे जंगल में शिकार खेलने के लिए गये। वहा पर किसी मुनि को घ्यानावस्थित देखा, देखते ही घोड़े पर से उतर कर उनके पास गये उनके चरणो मे नमस्कार किया। साधु ने पूछा - अहो भव्य, तूने क्या सोच कर मुझे नमस्कार किया है। आपाढ़भूति बोले-महात्मन, आप त्यागी पुरुप हैं, घर-बार छोड़कर तपस्या करते है और मुझसे बहुत अच्छे हैं, इसलिए आपको नमस्कार किया है। साधु ने फिर पूछा-और तू चुरा कैसे है ? बापाढभूति ने कहा-~महाराज, मैं अनेक प्रकार के बुरे काम करता हूं, इसलिए बुरा हूं। महात्मा ने कहा- तू भी बुरे काम छोड़कर अच्छा मनुष्य बन सकता है, महात्मा बन सकता है और लोक-पूजित हो सकता है। बता अव तू क्या त्याग करना चाहता है ? आपाढ़भूति मन मे सोचने लगे-यह क्या वला गले आ पड़ी । मैं सीधा ही चला जाता तो अच्छा था। फिर साहस करके बोला—महात्मन्, मैं तो संसार में पड़ा हूं, अतः आप जो कहें उसी के त्याग का नियम ले लेता हूं। महात्मा वोले-भाई मैं तो कहता हूं कि तू सब कुछ त्याग करदे । देख, यह संसार असार है, ये विपय-भोग क्षण-भंगुर है किपाकफल के समान प्रारम्भ मे खाते समय मिष्ट प्रतीत होते है, किन्तु परिपाक के समय अत्यन्त दुःखकारी है । यह कह कर महात्मा ने एक भजन गाया-- मत कोज्यो जी यारी, ये भोग भुजंग सम जानके । मत कोज्योजी यारी। भुजंग लुसत इक वार नसत है, ये अनन्त मृत्युकारी। तिसना तृषा बढ़े इन से ये, ज्यों पीये जल खारी ॥ मत कीज्यो जी यारी, ये भोग० ॥१॥ रोग वियोग शोक वन को धन, समता-लता कुठारी। केहरि करी अरी न देत ज्यों, त्यो ये दें दुख भारी॥ मत कीज्यो जी यारी, ये भोगः ॥२॥
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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