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________________ १६५ रूपचतुदर्शी अर्यान् स्वरूपदर्शन वहाँ होने वाले आनन्द-नाटकों के देखने में ही मग्न हो गये और कितने ही लोग किन्नर-किन्नरियों के नृत्य-संगीत में ही निरत हो गये । इस प्रकार अनेक लोग भगवान के समीप तक भी पहुंच कर आत्म-रूप के दर्शन से वंचित रहे । किन्तु जो केवल अपने रूप को निहारने के लिए गये, उनको आत्म-स्वरूप दृष्टिगोचर हुआ। उन्होंने आज तक की अपनी भूल को पहिचाना और उसे दूर कर वे तुरन्त भगवान के बताये मार्ग पर चलने के लिए प्रजिन हो गये । मुनि-धर्म अंगीकार किया और घोरातिबोर तपश्चरण कर आत्म साधना में संलग्न हो गये । जव उन्होने देखा कि अब अपने को यहां से रवाना होना है, तब उन्होंने पंडितमरण को स्वीकार कर लिया । इमे अंगीकार करने वालों का मरण एक बार ही होता है और वे सदा के लिए जन्म-मरण के चक्र से विमुक्त हो जाते हैं। जिन्हें यात्मसाक्षात्कार हो जाता है और अपने अनन्त गुणों का भान हो जाता है, वे यह अनुभव करने लगते हैं कि जब तक इस शरीर के साथ मेरा राम रहेगा और स्नेह-सम्बन्ध बना रहेगा, तब तक सांसारिक दुःखों से छुटकारा नहीं मिल सकता । वे शरीर के निद्य, जड़ और वन्धन-कारक यथार्थ स्वरूप को जानकर अपनी आत्मा को उसके बन्धन से मुक्त करने के लिए सदा ही प्रयत्नशील रहते है । भगवान के द्वारा अपना रूप देखने के लिए ज्ञानरूपी दर्पण को सामने रख देने पर भी आज देखने में आता है कि जितना शौक हम लोगों को याते करने का है और विकथा-वाद में जितना समय नष्ट करते हैं, उसका शतांश भी शास्त्र-स्वाध्याय करने में समय नहीं लगाते हैं। फिर भी आप लोग समझते हैं कि हम बहुत होशियार हैं। परन्तु यथार्थ में वे महामूर्ख हैं, जिन्हें प्रतिक्षण विनष्ट होती हुई अपनी यथार्थ सम्पत्ति के संभालने की भी सुध-बुध नहीं है। जैसे सच्चे दुकानदार का ध्यान अपने व्यापार के हानि-लाभ पर रहता है और वह हानि के कारणों से बचता रहता है। उसके सामने कितने ही मेले-ठेले लगें और उत्सव हों, फिर भी वह उनकी ओर ध्यान नहीं देता, किन्तु अपनी दुकानदारी में ही दत्त-चित्त रहता है। इसी प्रकार ज्ञानी और आत्मस्वरूपदर्शी व्यक्ति का चित्त भी सासारिक बातों की ओर नहीं जाता है किन्तु वह सदा आत्मा के उत्थान करने वाले कार्यों में ही संलग्न रहता है। ____ जो दुकानदार अपने काम से काम रखता है और दुनिया के प्रपंचों में नहीं पड़ता है, वही सच्चा दुकानदार और व्यापारी कहलाता है । भले ही उसे कोई कहे कि यह तो कोल्हू के बैल के समान रात-दिन अपने काम में लगा रहता है। मगर वह इसकी चिन्ता नहीं करता। इसी प्रकार यात्म-साधना में
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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