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________________ धनतेरस का धर्मोपदेश जो देशना प्रारम्भ की उसमें चारो ही अनुयोगों का समावेश हुआ है। उस जानरूपदिव्य देशनारूप धन की प्राप्ति की स्मृति में यह तेरस 'धन तेरस' के नाम से प्रसिद्ध हुई है। उत्तराध्ययन का उपदेश । उत्तराध्ययन के जिन अध्ययनों में आचार का प्रतिपादन किया गया है, वह चरणानुयोग रूप है। जिनमें जीवादि द्रव्यों का और उनके भावो एवं लेश्याओं आदि का वर्णन है, वे अध्ययन द्रध्यानुयोग रूप है । जिनमें जीवों के भवादि की संख्या का वर्णन किया गया है, वे गणितानुयोग रूप हैं और जिनमें अरिष्टनेमि आदि महापुरुषों की जीवन-कथाओं का चित्रण किया है उन्हें धर्म कथानुयोग रूप समझना चाहिए। इस प्रकार भगवान ने अपने जीवन के अन्त में जो कुछ शेप ज्ञानरूप धन सुरक्षित रख छोड़ा था, वह मर गौतम के माध्यम से सर्व शिष्य परिवार को संभला दिया। उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन विनय सूत्र है । इसमें बताया गया है कि हे भव्यजीवो, तुम बिनयवान् बनो, विनयशील बनो और विनयी होकर उत्तम गुणों का उपार्जन करो, आचार्य के गुरु के समीप शान्त चित्त होकर, चंचलता और वाचालता छोड़कर उनके पास अर्थ-युक्त पदों को सीखो एवं निरर्थक बातों को मत कहो। निसन्ते सियाऽमुहरी वुद्धाणं अन्तिए सया । अट्ठजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निराणि य वज्जए । गुरु के समीप विना पूछे कुछ भी नहीं बोले, पूछे जाने पर असत्य न बोले, क्रोध न करे । जो गुरु की आज्ञा पालन नहीं करता, गुरु की सेवा-शुथ पा नहीं करता, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करता है, वह अविनीत कहलाता है । अतः शिष्य को उक्त कार्य छोडकर विनीत होना चाहिये । दूसरा परीपह अध्ययन है । इसमें बतलाया गया है जो विनीत होगा, वही परीपहों को सहन कर सकेगा। परीषहों को क्यों सहन करना चाहिये, इसका उत्तर देते हुए वाचक-प्रवर उमास्वाति ने कहा है--- मार्गाच्यवन निर्जरार्थ परिपोढव्या: परीषहाः । अर्थात्-धारण किये हुए धर्म मार्ग से च्युत न होने के लिए और संचित कर्मो की निर्जरा के लिए परीपहों को सहन करना चाहिये । भगवान महावीर की धर्म-प्ररूपणा के दो मुख्य अंग हैं अहिंसा और याट-महिष्णुता । कष्ट सहन करने का अर्थ है कि अहिंसा धर्म की भर-पूर
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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