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________________ १३४ प्रवचन-सुधा शास्त्र-स्वाध्याय करता है, तो वह छह काया के जीवों की हिंसा करता है, या नहीं ? भाई, धर्म में तो हिंसा का काम नहीं है । इस प्रकार दीपक-बिजली आदि की रोशनी में बैठकर स्वाध्याय नहीं कर रहा है किन्तु अनाध्याय कर रहा है । यदि उसे धर्म से रुचि है, तो दिन में इधर-उधर गप्पें मारना छोड़े, प्रमाद छोड़े और-शास्त्र-स्वाध्याय करने में लगे तभी उसे वास्तविक लाभ होगा और वह स्वात्मोन्नति कर सकेगा। दिन में-सूर्य के प्रकाश में छोटे-छोटे जन्तु अंघकार वाले स्थानों में जाकर छिप जाते हैं, अत. उस समय स्वाध्याय करने में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होती है। रात में ये छोटे-छोटे जन्तु दीपक-विजली आदि के प्रकाश से आकर्षित होकर उस पर झपटते है और मारते है। इस प्रकार उस प्रकाश का उपयोग करनेवाला व्यक्ति उस होने वाली जीव-हिंसा के पाप का भागी होता है। परन्तु धन के लोलुपी मनुष्य दिन में तो स्वार्थ त्याग करके शास्त्र-स्वाध्याय नहीं करेंगे और धनोपार्जन में लगे रहेंगे । और रात्रि में रोशनी के सामने बैठकर शास्त्र स्वाध्याय करके पाप का उपार्जन करते हुए समझेगे कि हम धर्म और ज्ञान का उपार्जन कर रहे हैं। आज संसार में अन्धभक्ति और मूढ़ताएं इतनी अधिक बढ़ गई है कि लोग काली-दुर्गा आदि के ऊपर अपने पुत्र तक को मार कर चढ़ा देते है । ऐसा व्यक्ति क्या उसका भक्त कहा जायगा? यदि वह उसका सच्चा भक्त है तो अपने शरीर को क्यों नहीं चढ़ाया? यदि वह अपना बलिदान करता तो सच्चा भक्त कहा जाता और संसार में उसकी प्रशंसा भी होती । परन्तु दूसरे का शिर काट कर चढ़ाना तो भक्ति नहीं, किन्तु राक्षसी वृत्ति है। भक्ति तो हृदय की वस्तु है। 'भ' नाम भय का है जो उससे सर्वथा मुक्त हो, वही सच्चा भक्त कहलाता है । भक्ति कोई बाहिर दिखाने की वस्तु नहीं हैं। हां उसकी ईश्वर में तन्मयता और धर्म-परायणता को देख कर दुनिया उसे भक्त कहे, तो कह सकती है। भक्ति के लिए तो कहा है कि 'चित्त प्रसन्ने रे पूजा करे। जब चित्त में प्रसन्नता है, स्वस्थता है, निर्विकारीपना और निष्कपायता है, तभी प्रभु की सच्ची भक्ति हो सकती है और तभी वह सच्चा भक्त कहा जा सकता है । भाई, समभावी व्यक्ति के हृदय में ही सच्ची भक्ति आती है, विषमभावी के हृदय में वह नहीं आ सकती है। समभावी अपने कार्य को करते हुए सदा यह विचार करेगा कि मेरे इस कार्य को करते हुए किसी भी प्राणी को कष्ट तो नहीं पहुंच रहा है। भाई, जब इस प्रकार समभाव में रहते हुए प्रभु की भक्ति करोगे, तभी आत्मा का कल्याण हो सकेगा, अन्यथा नहीं । वि० स० २०२७ कातिककृष्णा १० जोधपुर,
SR No.010688
Book TitlePravachan Sudha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMishrimalmuni
PublisherMarudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
Publication Year
Total Pages414
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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