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१८० श्रीमद्वीरविजयोपाध्याय कृतसंतापको दूर निवारी । एकमगनता धारी रे । दिनमें निज आतमको तारी । जजते नवदधि पारी रे ॥ हां दे ॥ ४॥ ऐसें मुनिवर हे व्रतधारी । आतम आनंद कारी रे । वीर विजय कहे हुँ बलिहारी । नमुं नमुं सो सो वारी रे ॥ हां दे ॥५॥
-गज गुरुदेवकी सज्छाय।
॥रेखता ॥ विजे आनंद सूरि राया। पूरवले पुन्यसें पाया। चतुरविध संघमे धोरी । गुरुजीसें वंदना मोरी ॥ वि० ॥१॥ गुणषट्त्रिंशके धरता। अहो उपगारके करता । धरमकी टेक हे नारी । गुरु है बाल ब्रह्मचारी ॥ वि० ॥ २॥ गुरुजी ज्ञानके धरता । कुमतके मानको हरता । देखके वादी सब मरता। न सन्मुख पेर को धरता ॥ वि० ॥ ॥३॥ शीतलता चंउमा जैसी। मेरु सम धीरता ऐसी ॥ सायर गंजीर नहीं ऐसा। गुरु गंजीर है जैसा || वि० ॥ ४ ॥ कंचन और काच सम माने।नारीको नागिणी जाने || अंतरगत मोह सब बारी । गुरु उदासीनता धारी ॥ वि०॥५॥ऐसे गुरु