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________________ द्वादश मापना । ॥ अथ एकादशमी लोकस्वरूप नावना। ॥ राग जन्द काफी ॥ जवी लोक स्वरूप समरे सम॥आंचली॥ कटि धरि हाथ चरण विस्तारी । नर आकृति चित धररे । षमअव्य पूरण लोक समरले, उपजत बिनसत थिररे ॥ नवी० ॥ १ ॥ त्रिजुवन व्यापक लोक विराजे, पृथ्वी सातसु धररे । घनोदधि धन तनु वात वलि कलशे । चार ओर रही थीररे ॥ नवी ॥ ॥ वेत्रासन सम लोक अधो है, ऊटलरी निज मध्यवर रे । मुरजाकार ही ऊर्ध्वलोक है। नाषे जग जिनवर रे ॥ नवी० ॥ ३॥ रचना इसकी किन ही न कीनी, नहीं धार्यो किन कर रे ॥ स्वयं सिद्ध निराधार लोक ये, गगन रह्यो ही अचर रे ॥ नवी० ॥ ४ ॥ ईश्वर कृत्यही लोक जो माने, सो अज्ञान ही वर रे ।आत्मानंदी जिनवर जप्पो, मान मिथ्या मत हररे ॥ नवी० ॥ ५॥
SR No.010687
Book TitleAtmanand Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherBabu Saremal Surana
Publication Year1917
Total Pages311
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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