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________________ ___ ३६ दशवकालिक बैठ, पा, कर, सो, ठहर, जा, असंयत जन को तथा । धीर प्रज्ञावान सयत यो न बोले सर्वथा ॥४७॥ हैं असाधक बहुत पर वे साधु हैं कहला रहे। असाधक को साधु न कहे साधु को साधक कहे ।।४।। ज्ञान-दर्शन युक्त सयम-तपोरत सतत रहे। इन गुणों से युक्त जो मुनि उसे ही सयत कहे ॥४६॥ देव-नर-पशु-पक्षियो मे रण परस्पर हो कही। , अमुक को जय हो अमुक की हार यो बोले नहीं ॥५०॥ वायु, वर्षा, शीत, उष्ण, सुकाल, क्षेम व सुख तथा । कदा होंगे या न हो ऐसे न बोले सर्वथा ॥५१॥ उसी भाँति नभ, मेघ, मनुज को देव देववच कहे नही। वर्षोन्मुख, उन्नत, पयोद या वृष्ट-बलाहक कहे सही ॥५२॥ *अन्तरिक्ष कहे उसे गुह्यानुवरित कहे व्रती। देखकर सपन्न नर को ऋद्धिमान कहे यती ।।५।। जो पापानुमोदिनी, अवधारिणी व पर उपधात करे। ___ क्रोध, लोभ, भय और हास्यवश भी ऐसी न गिरा उचरे ॥५४॥ वचन-शुद्धि का कर विवेक जो दूषित-वाणी तज देता। नित निर्दोष विचारित कहता वह सुजनो मे यश लेता ॥५५।। भाषा के गुण-दोष जान नित दूषित-गिरा तजे मुनिवर। षट् काया-प्रतिपाल, चरित-रत बोले मधुर और हितकर ॥५६॥ विचार भाषी, समाहितेन्द्रिय, विगतकषाय, तटस्थ तथा पूर्वाजित-मलहर, लोक-द्वय का वह आराधन करता ॥५७॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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