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________________ २८ दशवकालिक लोक मे सब साधुओ ने झूठ को गहित कहा। प्राणियो को हो यप्रत्यय अतः झूठ तजे यहीं ॥१२॥ सचेतन अथवा अचेतन स्वल्प अथवा बहुत है। अयाचित जो दन्त-शोधन मात्र अन्याधिकृत है ।।१३।। उसे ग्रहण करे न खुद पर से न करवाए सही । ग्रहण करते हुए को सयत भला समझे नही ।।१४।। युग्म घृणित-घोर-प्रमाद-घर अब्रह्मचर्य कहा अरे।। लोक मे भेदाऽयतन-वर्जक मुमुक्षु न पाचरे ।।१५।। अधर्मो का मूल है यह महादोपाऽगार है । अत. छोडे मिथुन का संसर्ग जो अनगार है ।।१६।। विड़ व सागर-लवण, गुड, घृत तेल प्रादिक का सही। ज्ञात-नन्दनवचन मे रत, चाहते संग्रह नही ।।१७।। लोभ का सस्पर्ग माना है सभी ने यह सही। स्वल्प भी यदि साहेच्छक तो न मुनि वह, है गृही ॥१८॥ जो कि वस्त्र, अमत्र, कम्बल, पाद-प्रोछन वस्तुएँ । धारते उपभोगते चारित्र-लज्जा के लिए ॥१६॥ उसे त्रायी ज्ञात-सुत ने परिग्रह, न कभी कहा। _कहा मूर्छा है परिग्रह, यों महा ऋषि ने अहा ।।२०।। बुद्ध' भी सर्वत्र रक्षा-हित उपधि रखते अरे । और क्या ? निज देह पर भी वे ममत्व नही करे ॥२१॥ नित्य तप मुनि के लिए सव ही प्रबुद्धो ने कहा। वृत्ति सयम-योग्य है जो एक भक्त अगन अहा ॥२२॥ सूक्ष्म प्राणी त्रस व स्थावर दीखते निशि मे नही । श्रमण विधि-युत तदा कैसे वहां चल सकता सही ॥२३॥ सवीजक व जलार्द्र भोजन प्राणियों से पथ भरे। वचाए दिन मे, तदा कैसे निशा मे संचरे ॥२४॥ देख करके दोष ऐसे ज्ञात-नन्दन ने कहा । रात्रि-भोजन नही करते सर्वथा मुनिवर महा ॥२५॥ पहा । १ तीर्थकर, प्रत्येकबुद्ध जिनकम्पिक मुनि ।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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