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________________ अ० ५ : पिण्डेषणा (प्र० उ०) जान परिणत अचेतन संयत ग्रहे उसको अरे। . अगर शका हो तदा चखकर उसे निर्णय करे ॥७७॥ कहे चखने को मुझे दो हाथ मे थोडा यही । बहुत खट्टा सड़ा जल मम प्यास हर सकता नही ॥७८।। सडा खट्टा जल बुझाने प्यास जो असमर्थ हो । __ कहे देती हुई से-यह कल्पता न मुझे अहो ॥७९॥ अनिच्छा व असावधानी से ग्रहण हो उक्त जल । स्वय न पीए अन्य को भी दे नही वैसा सलिल ॥८॥ विजन मे जा देख भूमि अचित्त को फिर ,यत्नत.। उसे परठे, परठकर प्रतिक्रमण करता शीघ्रतः ।।८१॥ गौचरी-गत मुनि कभी चाहे अशन करना अगर । भित्ति-मूल अचित्त कोष्ठक को वहाँ फिर देखकर ॥२॥ सुआच्छादित सुसंवृत स्थल की अनुज्ञा ले कृती। पूंज हस्तक' से वहां पर करे भोजन संयती ।।८३॥ अशन करते वीज कटक काष्ठ तृण कंकर कदा। तथाविध जो अन्य चीजे अशन मे आए तदा ॥८४॥ तथानिय ना. नही फेंके हाथ से थूके न मुख से सयती। . ग्रहण करके हाथ मे एकान्त मे जाए व्रती ॥८॥ विजन मे जा वहाँ भूमि अचित्त को प्रतिलेख कर। यत्न से परठे उसे, प्रतिक्रमण करता परठ कर ॥८६॥ स्थान पर ही अशन करना चाहता भिक्षुक अगर । तो अशन लाकर वहाँ के स्थान को प्रतिलेख कर ।।७।। विनय-युक्त प्रवेशकर गुरु पास मे आए मुनि । पढे ईपिथिक, फिर प्रतिक्रमण शीघ्र करे गुणी ॥८॥ अशन-पानी ग्रहण करते और गमनागमन मे। यथाक्रम अतिचार सब चिन्तन करे मुनि स्वमन मे॥८६॥ स्थिर-मना ऋतु-प्राज्ञ मुनि उद्वेग-वजित चित्त से ? ग्रहण जो जैसे किया आलोचता गुरु निकट से ॥१०॥ १ मुख-वस्त्रिका या पूजनी या पान-प्रमार्जन के काम आनेवाला वस्त्र-खण्ड ।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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