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________________ . म०४:पजीवनिका महाव्रत पहला प्रभो !. प्राणातिपात-विरमण है। . त्यागता हूँ सर्व भगवन् ! प्राणवध भव-भ्रमण है ॥२५॥ सूक्ष्म, बादर, त्रस व स्थावर प्राणवध मैं स्वकर से। '' करूंगा न स्वय, कराऊंगा नही मैं अपर से ॥२६॥ मला समझूगा न वध करते हुए - को उम्र-भर।' त्रिविध-त्रिविध मनोवचन तन से न करता आर्यवर ॥२७॥ कराऊँगा, नही, -करते हुए की, अनुमोदना। नहीं करता, पूर्वकृत की कर रहा आलोचना ॥२८॥ प्रतिक्रमण निन्दा व गर्दा कर रहा अनुताप मैं । आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् ! बना निष्पाप मैं ॥२६॥ उपस्थित पहले महावत मे हुआ प्रभु !. आप से। सर्वथा : प्राणातिपात-विमुक्त हूं संताप - से ॥३०॥ बाद इसके दूसरा भगवन् ! : महाव्रत सार है। मृषावाद-विरमण-व्रत, यह - सत्य. जगदाधार है ॥३१॥ झठ · को मैं त्यागता हूं-हे प्रभो । 'अब सर्वथा। क्रोध, लोभ व हास्य, भय से चतुर्धा है. जो यथा ॥३२॥ झूठ खुद वोलू न बुलवाऊँ अपर, से भी नही। और जो वोले उसे अच्छा नही, समझू कही ॥३३॥. त्रिविध-विविध मनोवचन तन से न करता, उम्र-भर । नही करवाता व अनुमोदन न करता आर्यवर ॥३४॥ पूर्वकृतः का प्रतिक्रमण निन्दा-व-गहीं कर रहा। आत्म का व्युत्सर्ग कर भगवन् । सतत मघ हर रहा ॥३५॥ दूसरे इस - महाव्रत - मे हूं उपस्थित - आप · से। सर्वथा तज झूठ को प्रभु मुक्त हूँ संताप से ॥३६॥ बाद इसके तीसरा भगवन् । महाव्रत श्रेय है। ' ' 'सब अदत्तादान-विरमण नियम समुपादेय है ॥३७॥ त्यागता, -- हूँ अब, अदत्तादान को मैं - सर्वथा.। ग्राम, नगर, अरण्य मे षड्भेद इसके हैं यथा ॥३८॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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