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________________ दशर्वकालिक घूम-नेत्र', वमन, विरेचन, वस्तिकर्म तथा कहा । दन्तवण, अञ्जन व गात्राभ्यङ्ग व विभूषण रहा ||६|| महाऋषि निर्ग्रन्थ हित, ये अनाचीर्ण सभी कहे । जो कि संयम युक्त हो लघुभूत विहरण कर रहे ॥१०॥ षट्क-संयत, त्यक्त - पंचास्रव, त्रिगुप्ति-सुगुप्त है । पंच-निग्रह, धीर, ऋजुदर्शी वही निर्ग्रन्थ है ॥११॥ ग्रीष्म मे श्रातापते, हेमन्त में तजते वसन । रहे प्रतिसलीन पावस मे, समाहित परीषह-रिपु दमनकर्त्ता, धूतमोह रहे जितेन्द्रिय सब दुख-नाशन-हित पराक्रम संत जन || १२ || कष्ट दुःसह सहन कर, दुष्कर क्रिया करके दिवंगत होते व नीरज सिद्ध होते मुदा । रत सदा ||१३|| - कई । हैं कई ॥ १४ ॥ त्याग तप से पूर्व कर्मो को खपा त्रायी महा । सिद्धि पथ-अनुप्राप्त वे, निर्वाण पाते हैं कहा ||१५|| १. धूम्र-पान की नलिका रखना । 1 २. रोग की सभावना से बचने के लिए अपान-मार्ग से तेल आदि चढ़ाना ।
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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