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________________ म० ३४ लेश्या नमनशील अचपल अकुतूहल मायारहित व विनय-निपुण फिर । दान्त समाधि युक्त उपधान- तपस्या करने वाला जो नर ||२७|| दृढधर्मी, प्रियधर्मी, पाप-भीरु है, मुक्ति - गवेषक वर । इन सब से युत, वह तेजो लेग्या में परिणत होता नर ||२८|| क्रोध मान माया व लोभ जिस नर के हृदय स्वल्पतम है । समाधि-युत, उपधानवान, दान्तात्मा और शान्त मन है || २ || अतीव मितभाषी उपशान्त जितेन्द्रिय होता आर्य प्रवर । इन सबसे जो युक्त, पद्म लेश्या मे परिणत होता नर ||३०|| श्रार्त्त - रौद्र को छोड़ धर्म फिर शुक्ल ध्यान में रहता लीन । समित, प्रशान्त-चित्त, दान्तात्मा, गुप्ति गुप्त जो मनुज प्रवीण ॥३१॥ सराग या फिर वीतराग, उपशान्त जितेन्द्रिय सयत है। 1 इन सब से जो युक्त, शुक्ल लेश्या में होता परिणत है ||३२|| असख्य कालचक्र के समय व तथा असख्य लोक के जान | जितने होते है प्रदेश, उतने हैं लेश्याओ के स्थान ||३३|| ज १८६ J जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति, उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या की जान । अन्तर्मुहूर्त काल अधिक तेतीस सागरोपम परिमाण ||३४|| S r जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति, उत्कृष्ट नील लेश्यों की जान । पत्योपम के असख्यातवे भाग अधिक दश सागर मान ॥३५॥ 1 जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति, उत्कृष्ट तीन सागर उपमान । और पल्य के सख्यातवे भाग अधिक कापोतिक जान ||३६|| जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति, उत्कृष्ट उभय सागर परिमाण । और पल्य के असख्यातवे भाग अधिक तेजस् की जान ||३७॥ जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति, उत्कृष्ट पद्म लेश्या की जान । अन्तर्मुहूर्त काल अधिक दश सागर की होती मतिमान ! ||३८|| जघन्य अन्तर्मुहूर्त स्थिति उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या की जान । अन्तर्मुहूर्त काल अधिक तेतीस सागरोपम परिमाण ||३६|| लेश्या की औघतया स्थिति यह वर्णित की गई भ्रमण । चारो गतियो मे लेश्या - स्थिति का अब करता हू वर्णन ॥४०॥ 7
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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