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________________ उत्तराध्ययन ११६ }" जान लिए मैंने सब हैं वे मिथ्यादृष्टि श्रनायें तथा । परभव - विद्यमानता मे श्रात्मा को संम्यक् मुझे पता ||२७|| मैं था महाप्राण में द्युतिवाला सुर वर्ष शतोपम पूर्ण । माना जाता यहाँ, वहाँ त्यों पल्य सागरोपम - परिपूर्ण ||२८|| ब्रह्मलोक से च्युत हो, मनुज लोक मे आया हूँ पहचान । ज्यो अपना आयुष्य जानता, त्यों श्रौरो का भी मतिमान || २ || नाना रुचि, अभिप्राय व सभी अनर्थों को छोडे संयत । इस विद्या के पथ पर तेरा हो संचरण श्रमण ! संतत ॥ ३०॥ सपाप प्रश्नो और गृहस्थ मत्रणाओं से रहता दूर । निशि-दिन धर्मोद्यत रहता, यह समझ करो तुम तप भरपूर ॥ ३१ ॥ शुद्ध चित्त से जो तुम मुझे पूछते हो आयुष्य विषय मे । उसे बुद्ध ने प्रकट किया है विद्यमान वह जिन - शासन में ||३२|| छोड़ अक्रियावाद, करे रुचि क्रियावाद मे धीर प्रवर । सम्यक् - दर्शन से सयुत हो, धर्माचरण करे दुष्कर ||३३|| अर्थ-धर्म से उपशोभित इस पावन सदुपदेश को सुनकर । दीक्षित हुए भरत नृप, भारतवर्ष, कामभोगो को तजकर ||३४|| सागरान्त भारत-भू छोड, सगर चक्री भी गुण- सभृत । तज सपूर्ण ऋद्धि को, सयम पाल हुए हैं परिनिर्वृत ॥ ३५॥ महा यशस्वी तथा महद्धिक मघवा चक्रीश्वर ने सर्व । भारतवर्ष छोड कर दीक्षा ली, फिर मुक्त बने गत गर्व ॥ ३६ ॥ मानवेन्द्र व महद्धिक चक्रवर्ती चौथा जो सनत्कुमार । सुत को राज्य सौप कर उसने उग्र तपस्या की स्वीकार ॥ ३७ ॥ विश्व शान्तिकारक व महद्धिक, चक्री शांन्तिनाथ नामी । वे भी भारतवर्ष छोडकर हुए अनुत्तर गति गामी ॥ ३८ ॥ इक्ष्वाकु नृपति श्रेष्ठ, कुन्धु नामक नर- इन्द्र हुए धृतिमान | अति विख्यात कीर्ति वाले पा गए अनुत्तर- मोक्ष स्थान ॥३६॥ सागरान्त भारत भू छोड नरेश्वर श्रर नामक नामी | नीरज होकर वे भी सत्वर हुए अनुत्तर गति गामी ॥४०॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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