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________________ अ०१८ : सजयीय जहाँ मोह तू करता है - राजन् ! वह जीवन, रूप-रुचिरता । 7. 'विद्युत चमत्कार सम चचल, पुरभव हित को क्यों न समझता ॥ १३ ॥ 1 1 3 स्त्रियाँ, पुत्र, फिर बान्धव, मित्र आदि जो यहाँ स्वजन कहलाते । जीवित नर के सह जीते हैं किन्तु न मृत के पीछे जाते ॥१४॥ } परम दुखित हो मृतक पिता को श्मशान ले जाते हैं सुतवर । पितु भी मृत, सुत बन्धुजनो को अंतः समाचर तप तू नरवर ॥ १५ ॥ र T HIN मरने के पश्चात् भूप । अजित धन, रक्षित स्त्री गण को । 1 '.. हृष्ट, तुष्ट व अलकृत हो, नर अपर भोगते हैं उनको ॥ १६ ॥ १ ' जो सुखकर या दुखकर कर्म किया है उसको लेकर साथ । + Pr परभव मे जाता एकाकी सब कुछ छोड़ यहाँ नरनाथ ! ॥१७॥ उस अनगार श्रमण से प्रति श्रादर पूर्वक सुन धर्म महान । सृति से उद्विग्न हुआ संजय नृप मोक्ष- इच्छु गुणवान ॥१८॥ गर्दभालि भगवान्, श्रमण के पास हुआ दीक्षित तत्काल । राज्य - - छोड कर जिन शासन मे साधु बना सजय भूपाल ॥ १६ ॥ राष्ट्र छोड़ प्रव्रजित एक क्षत्रिय मुनि कहता संजय से यो। :: दीख रही माकृति प्रसन्न ज्यो मन भी तेरा है प्रसन्न त्यो ||२०|| क्या है नाम व गोत्र तथा किस लिए बने हो माहन तुम ? A किस प्रकार गुरु-सेवा करते," किस प्रकार हो विनयी तुम ॥ २१ ॥ ११५ 37 श्रमण | नाम से मैं हूँ सजय तथा गोत्र से गौतम, आर्य ! विद्याचरण - पारगामी हैं मेरे । गर्दभालि आचार्य ॥२२॥ ३ 1 " · 1 'क्रिया, क्रिया, विनय और अज्ञानवाद जो मुने ! कहाते ! इन चारो द्वारा एकान्त तत्त्ववादी क्या-क्या बतलाते ? ||२३|| 1 1 65 पाप कर्म करने वाले नर घोर नरक में जाते है । विद्याचरण युक्त जो सचवादी फिर सत्य पराक्रमवान । शान्त ज्ञात-वशीय तत्त्वविद् ने निम्नोक्त कहा, मतिमानं ॥ २४ ॥ Ap आर्य धर्म करने वाले नर, दिव्य देव गति पाते है ॥२५॥ - 123 ," ۳ जो भी कहा उन्होने कपट पूर्ण है, मिथ्या वचन, निरर्थक । उनसे बचकर रहता हूँ चलता संयत में यत्ना पूर्वक ॥२६॥ 1
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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