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________________ ८४ उत्तराध्ययन सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! नमि राजर्षि - प्रवर ने देवराज से फिर इस भांति कहा ||१३|| हम, जिनके पास न कुछ भी है । सुख से रहते जीते है मिथिला जलती है उसमे मेरा न जल रहा कुछ भी है || १४ || सुत दारा से मुक्त भिक्षु फिर जो रहता है निर्व्यापार | उसके लिए न कोई प्रिय-अप्रिय है, सम सारा ससार ॥१५॥ जो एकत्व-तत्त्वदर्शी फिर सब बन्धन से होता मुक्त । गृहत्यागी सुतपस्वी मुनि वह विपुल सुखो से होता युक्त ॥ १६ ॥ इस प्रकार सुन अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! देवराज ने नमि राजर्षि - प्रवर से फिर इस भाति कहा ॥ १७॥ पहले परकोटा, गोपुर, खाई व शतघ्नी बनाकर । तदनन्तर तुम मुनि बन जाना कहना मानो क्षत्रियवर ! || १८ || सुनकर के यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! नमि राजर्षि - प्रवर ने देवराज से फिर इस भांति कहा ॥ १६ ॥ श्रद्धा नगर व क्षमा शतघ्नी तप सयम अर्गला बना । मन वच काय गुप्ति-रक्षित दुर्जेय निपुण प्राकार बना ॥२०॥ धनुष पराक्रम रूप तथा ईर्ष्या को उसकी डोर बना । धृति को मूठ बना फिर उसे सत्य से बांधे महामना ॥ २१ ॥ तप नाराच युक्त, फिर उससे कर्म - कवच को कर भेदन | इस प्रकार कर ग्रन्त युद्ध का, भव से होता मुक्त श्रमण ॥ २२ ॥ इस प्रकार सुन प्रर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा 1 देवराज ने नमि राजर्षि - प्रवर से फिर इस भाति कहा ॥ २३ ॥ पहले वर प्रासाद व वर्धमान गृह तथा चन्द्रशाला । बनवाओ फिर हे क्षत्रियवर ! तुम मुनि बन जाना आला ॥ २४ ॥ सुन करके यह अर्थ हेतु कारण से प्रेरित हुए अहा ! नमि राजषि-प्रवर ने देवराज से फिर इस भाँति कहा ||२५|| वह सदिग्ध वना रहता है जो कि बनाता पथ मे घर । जहाँ कि जाना चाहे वही बनाए अपना घर बुध-वर ॥ २६ ॥
SR No.010686
Book TitleDashvaikalika Uttaradhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1976
Total Pages237
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size8 MB
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