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सनत्कुमारचरित
करतो. फळ, फूल, कंद अने पांदडांथी ते शरीरने टकावी राखतो. मार्गमांना राजाओ तेनो गमे तेटलो सारो सत्कार करता तो पण तेनुं मन तेमां राचतुं नहीं. (५३७). क्रमे क्रमे, दिन प्रतिदिन चारे तरफ फरतां ते अकस्मात् क्रूर रानी पशुओथी भयंकर एवी घोर अटवीमां आवी पहोंच्यो. भद्र जातिना अनेक हाथीओनी गर्जना सांभळीने 'गुं नरोत्तम सनत्कुमारनो आ गंभीर ध्वनि तो नहीं होय ?' ए प्रमाणे विचारीने ते मूटीओ वाळीने तेमनी सामे दोडतो. (५३८).
ए रीते चमरी गाय, केसरी सिंह, वाघ, दीपडा, जंगली हाथी, सरभ, वानर, हरण, नोविया अने कलहंसनी वसति वाळी तथा मोटा मोटा झाडो, पहाडो, जंगलो विशाळ नदीओ अने सरोवरोथी भरपूर एत्री पृथ्वी पर ते रखडतो हतो, त्यां एक वार जेमां विरही पोताना प्रियजनना गुणो स्मरीने झूरे छे एवी, (५३९). कष्टकारक वसंतऋतु आवी पहोंची. वृक्षोना उत्तम पुप्पोना रस अने परिमलथी जेणे आखा पृथ्वीमंडळने, गिरिगुफाओने अने आकाशने भरपूर कर्या छे, आम्रमंजरीनो रज प्रसरवाथी ऊपजेला रातापीळा रंगने कारणे जे मनोहर लागे छे, किम्पाक वृक्षना परागथी जेणे दिशाभो भरी दीधी छे तेवो, वसंतना ध्वज समो, मलयपवन लोकोना हृदयने विकळ करी दे छे. (५४०). भ्रमरोना गुंजारव प्रवासीओने तप्त करे छे, कोयलनो टहुकार दाह करे छे, केसूडा अने अशोक खेद उपजावे छे, विचकिल, मालती, वकुल अने करेण अतिशय दुःख दे छे. रोपे भगयेला विधाताए प्रवासीओ माटे जाणे के फांसाओ न गोठव्या होय ए रीते वसंत वर्ते छे. आ हताश वसंत कोनो मुखेथी वीतशे ? (५४१)
पर्वतोना प्रचंड जंगलोमां सळगता दावानळने साथ आपीने जेणे जगतने संताप्यु छे, जेणे पृथ्वीमंडळनां वाव, कूवा, नदीने सरोवरने सूकवी नाख्यां छे, जेणे वृक्षनां पर्णो खेरवी नात्यां छे तेवो निष्टुर, दुर्धर झंझावात गीष्मऋतुमां वाय छे, त्यांर एवो कोण छ जेने ते दाह न करतो होय ? (५४२) जेनां पत्र खरी गयां छे, श्री नष्ट थई छे, जळ साव ओसरी गर्दा छे एवी अतिशय त्रस्त, सौन्दर्यवती नलिनीतरुणीना कमळवदननी कान्ति दुष्ट रविराजाप कटोर कर बडे नष्ट करी. वळी वंटोठियाए. उछालेली रजथी जेणे दिशाओ धुंधळी करो नाग्ची छे तेवा कापुरुष ग्रीष्मे आ पृथ्वीमंडळमां कोने नथी संताप्या ? (५४३)..
मजन मेघनी जळधारानी बाणावळी बाळो मेघगर्जनानो हुँकार करतो, मीना पुंजनी पणछ वढे भयंकर, पुप्पर समां लुब्ध थईने दोडता भ्रमरोनां टोळांनी वाळी फैलावतो, मयूरमयूरीनां दो बड़े कलाप विस्तारतो एवो पामर