SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ' तब तक के लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ और इसलिये मैं अपनी आत्मा को याने कषाय आत्मा को, पापों से अलग करता हूँ। .. प्रश्न-१ इस सूत्र को बोलने का उद्देश्य क्या है ? .... .. उत्तर- मन, वचन और शरीर की चंचलता हटा कर हृदय में वीतराग ..... देव की स्तुति का प्रवाह वहा कर (ध्यान में चिंतन. द्वारा) अपने आपको अशुभ एवं चंचल. संसारी प्रवृत्तियों से हटा कर, शुभ __. . . .आत्मिक व्यापार में केन्द्रित कर, अपूर्व समभाव व दृढ़ता की प्राप्ति के लिये तथा पाप कर्मों के विनाश के लिये प्रयत्ल करना ही इस सूत्र का मंगलमय पवित्र उद्देश्य है।. . . . प्रश्न-२ कायोत्सर्ग क्या है ? .. . उत्तर- कायोत्सर्ग में दो शब्द हैं-काय+उत्सर्ग । काय कहते हैं शरीर को और उत्सर्ग का अर्थ है त्याग, छोड़ना। अतः कायोत्सर्ग का : शाब्दिक अर्थ हुआ शरीर का त्याग । प्रश्न है कि शरीर त्याग तो भव समाप्ति के पूर्व नहीं किया जा सकता, जबकि हम कायोत्सर्ग तो अल्प समय के लिये करते हैं । तो क्या हम कायोत्सर्ग द्वारा शरीर छोड़ने को क्रिया करते हैं ? नहीं ऐसा समझना भ्रान्ति या भूल होगी। शरीर से यहां तात्पर्य शरीर की ममता से या शरीर की कुप्रवृतियों, प्रारम्भी-सांसारिक प्रवृत्तियों से है। कायोत्सर्ग में साधक इन सांसारिक, शारीरिक प्रवृत्तियों का त्याग कर अपने आपको आत्मिक सद्प्रवृत्तियों में संलग्न करता है । .. प्रश्न-३ . इस सूत्र में कायोत्सर्ग के कितने आगार रखे गये हैं ? उत्तर- कायोत्सर्ग के १२ यागारों का उल्लेख है- उच्छवास १, निःश्वास २, खांसी ३, छींक ४, जम्भाई ५, डकार ६, अधोवायु ७, • चक्कर ८, पित्त संचार ६, सूक्ष्म अंग संचालन १०, सूक्ष्म कफ संचार ११ एवं सूक्ष्म दृष्टि संचरण १२ । ये सहज प्रवृत्तियां कायोत्सर्ग में प्रागार रूप होती है। प्रश्न-४ इस पाठ का नाम उत्तरीकरण-सूत्र क्यों ? उत्तर- इस पाठ में प्रात्मा को विशेष उत्कृष्ट बनाने के लिए कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा की जाती है, अतएव इस पाठ का नाम उत्तरीकरण...... सूत्र रखा गया है। प्रश्न-५ कायोत्सर्ग में आगार रखना क्यों आवश्यक है ? - . उत्तर- इसका उत्तर विवेचन में पैरा नं० ३ में स्पष्ट किया गया है ।
SR No.010683
Book TitleSamayik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendra Bafna
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1974
Total Pages81
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy