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________________ ४. और 'मकार' को 'क' करने पर ही 'उपधारन्जन' अनुस्वार और अनुनासिका होगा लोप और प्रकृतिभाव करने पर नहीं होगा वह ठीक नहीं है यह लामाब्देन्दु शेलार में स्पष्ट है क्योंकि वह उस शाखा के प्रयोग के लिए है । भाष्यकार ने उन्हीं तीन सूत्रों से इन प्रयोगों में 'सकार' का विधान कर इस वार्तिक का प्रत्याख्यान कर दिया है । 'समः सुटि ' सूत्र में 'द्विस का रक' निर्देश माना है । यह भाष्य की उक्ति 'द्वितका रक' निर्देश 'वाशरि' इस सूत्र से विसर्ग पक्षा अभिप्राय से है । 'तमः' में विभक्ति के 'सकार' पक्षा में त्रिसकारक निर्देश होना चाहिए । पहला, विभक्ति 'सकारः, दूसरा आदेश सकार, तीसरा सुटि का सकार । यही 'प्रश्लिष्ट सकार' उत्तर सूत्र में भी अनुवृत्त होता है अत: उन दोनों सूत्रों से भी 'पु' और 'कान् ' के 'मकार' और 'नकार' को 'सकार' होता है । 'सं पुकाना' यह वार्तिक करने की आवश्यकता नहीं है । उक्त सकार की अनुवृत्ति करने पर मध्यवर्ती सूत्र 'नश्छव्यप्रशान्'। की अनुवृत्ति होगी और अनिष्ट प्रयोग की आवृत्ति होगी ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसका समाधान भाष्य कार ने स्वयं ही दे दिया है। उन्होंने कहा है कि सम्बन्ध की अनुवृत्ति होगी न कि केवल सकार की। अतः मध्यवर्ती सूत्रों में अनुवृत्ति होने पर भी वह 'सकार' अपने प्रकृति सम्बन्ध को नहीं छोड़ेगा । यह प्रकृति सूत्र के प्रदीप उद्योत में स्पष्ट है । भाव यह है कि 'नाछव्यप्रशान्' इत्यादि मध्यवर्ती सूत्रों में अपने प्रकृति से सम्बन्धित 'सकार' की अनुवृत्ति होगी। अतः मध्यवर्ती सूत्र की - - -- 1. अंटाध्यायी 8/3/1
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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