SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से समाप्त करने पर तो नित्य समासता में ही संज्ञा त्व की अभिव्यक्ति होती है । तब भाष्यकार का नित्य ग्रहण प्रत्याख्यान व्यर्थ हो जाता है। यह तथ्य कैय्यट कृत प्रदीप' व्याख्यान में स्पष्ट है । अतएव भाष्यमत का अनुसरण करते हुए कौमुदीकार ने नित्यपद से अघटित 'न समासे' इतना ही वार्तिक पढ़ा है । तथ 'वाप्यश्वः ' यह उदाहरण दिया है । यह भी वार्तिक वाचनिक ही है। न्यात कार ने इस वार्तिक के अर्थ को व्याख्यान साध्य बतलाया है। उनके मतानुसार इस सूत्र से 'सर्वत्र विभाषा गो: ” इस सूत्र से 'विभाषा' पद की अनुवृत्ति आता है । और इसको 'व्यवस्थित विभाषा' मानकर लक्ष्यों के अनुरोध से व्यवस्था सम्भव हो जाती है। अत: यह वार्तिक बनाने की आवश्यकता नहीं है किन्तु ऐसा स्वीकार करने के अतिरिक्त भी लक्ष्यों के ज्ञान के लिए इस वार्तिक का आरम्भ करना चाहिए अन्यथा प्रकृति भाव कहाँ पर होता है और कहाँ पर सर्वथा नहीं होता है यह दुर्वचनीय हो जाएगा। किसी का मत है कि 'इको यणचि' सूत्र में 'इक्' ग्रहण के सामर्थ्य से 'न समासे' इस वार्तिक से साध्य शाकल विधि 1. सुप्सुपेति समासः । 'संज्ञायाम्' इति तु समाप्तस्य नित्यत्वात् सिद्धःप्रतिषेधः । महाभाष्य प्रदीप, 6/1/127. 2. व्याख्येय इत्यर्थः । तत्रेदं व्याख्यानं 'सर्वत्र विभाषागो: ' इत्यतो विभाषा ग्रहणमनुवर्तते, सा च व्यवस्थितविभाषा विज्ञायते । तेन ति नित्यसमासयो: शाक्लप्रतिषेधो भविष्यति । न्यास 6/1/127. 3. अष्टाध्यायी, 6/1/122.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy