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________________ प्रदीप एवं हरदत्तकृत पदम जरी' ग्रन्ध में स्पष्ट रूप से विवे चित है । यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता इस बात की है कि 'अकार लूकार' की परस्पर 'सवर्ण' संज्ञा होने पर भी परस्पर 'ग्राहकत्व' सार्वत्रिक नहीं है । 'लू ऋ' के पृथक अनुबन्ध करण के सामर्थ्य से उपर्युक्त तथ्य निर्धारित किया गया है । अतः 'सप्तशिखः ' इत्या दि प्रयोगों में 'गुरोरनृतोऽनन्त्यस्याप्येकैकस्य प्राचाम्' इत्यादि सूत्र से प्लुत सिद्ध हो जाता है अन्यथा 'अनृत: ' यह प्रतिषेध हो जाने से कृप्लुत की सिद्धि नहीं हो सकती थी तथा प्यमानम्' इत्यादि प्रयोगों में णत्वभाव सिद्ध हो जाता है। अन्यथा 'अ' ग्रहण से 'लु' के भी ग्रहण हो जाने से 'अवर्णन्नत्यनत्वम्' इससे जैसे मातृणाम् में 'णत्व' होता है वैसे ही उपर्युक्त प्रयोग में भी होता है । नागेश ने स्पष्ट ही कहा है कि 'पृथक् अनुबन्धकरया सम्बन्ध से अनुबन्ध कार्य के असाइकर्य का ज्ञापन न कर 'म लु' के परस्पर ग्राहकत्व का ही कदा चित्कत्व ज्ञापन करना उचित है । इसी से अनुबन्धकायर्या सार्य भी सिद्ध हो जाता है । कहाँ पर 'म लु' का ग्राहकत्व है १ कहाँ पर नहीं है ? इसकी लक्ष्यानुसार ही व्यवस्था की जाती है । भाष्यकार ने तो 'श्वानस्यणत्वम्' इस वार्तिक में 'अकार' ग्रहण से 'लुकार' ग्रहण की अति प्रसक्ति को उभा वित कर तथा 'मृप्यमानम्' इस प्रयोग में 1. अदिता लुदितां च धातुनां पृथगुपदेशनामध्यदिनुबन्धकार्याणाम् सङ्कर्यः । पदमञ्जरी ।/9/9. 2. न च 'उप्तशिखः ' इत्यादौ 'अनृत' इति निधात् प्लुतानापत्तिः । अनुवर्णयोः पृथगनुबन्धत्वकरणम क्वचित्परभ्यराग्राहकत्वकल्पनेनादोधात् । लझाब्देन्दु शेलार संज्ञा प्रकरणम्, पृष्ठ 36.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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