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________________ 197 अभूत तदभावं इति वक्तव्यम् 'अभूततदभावे कृभ्वस्तियोगे सम्पधकर्तरि चि: 2 इस सूत्र के भाष्य में 'च्वि विधायभूततदभाव ग्रहणम्' यह वार्तिक पढ़ा गया है । वृत्तिकार ने उक्त सूत्र को ही 'अभूततदभावघटित' पढ़ दिया है। उक्त सूत्र से 'कृ भू अत् ' के योग में सम्मधमान का अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय होता है और वह 'अभूततदभाव' अर्थ गम्यमान रहने पर ही होता है, अन्यथा नहीं यह वार्तिक का अर्थ है । अतः 'यवा: सम्पद्यन्ते' शालयः सम्पधन्ते यव सम्पन्न होते हैं, शालि सम्पन्न होते हैं । इत्यादि स्थन में 'वि' प्रत्यय नहीं हुआ ऐसा भाष्य में स्पष्ट है । 'अभूततदभावे' इस शब्द में 'तेन भावः ' तदभावः यह तृतीया समाप्त है । • अत: जिस रूप से पहले हुआ उस रूप से उसका भाव ऐसा फलितार्थ हुआ प्रकृति के विकारात्मकता को प्राप्त होने पर ऐसा अर्थ निष्कर्षरूप में कहा जा सकता है। विकारावस्था से पूर्व विकारात्मिका न हुई प्रकृति का विकारावस्था में विकारीत्मिका होना यही 'पूर्वो अभूतदभाव' है । जैसा कि वार्तिक भी किया गया है 'प्रकृतिविवक्षा ग्रहणं च' जब प्रकृति ही पहले विकारात्मिका न हुई हो तथा विकारात्मकता को प्राप्त हो, विकारात्मा होती हुई, भवनक्रिया की कीं हो तब 'वि' प्रत्यय होता है ऐसा वातिकार्थ है । अतः 'इस क्षेत्र में 'यव' सम्पधमान होते हैं । इस अर्थ में 'च्चि' प्रत्यय नहीं हुआ । 1. लघु सिद्धान्त कौमुदी, तद्वित प्रकरणम्, पृष्ठ 1017. 2. अष्टाध्यायी 5/4/50.
SR No.010682
Book TitleLaghu Siddhant Kaumudi me aaye hue Varttiko ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrita Pandey
PublisherIlahabad University
Publication Year1992
Total Pages232
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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